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८२ चिंतन की मनोभूमि
लिए है। जिसने स्व-स्वरूप को समझ लिया, उसे फिर अन्य किसी बात की अपेक्षा नहीं रहती ।
संसार एक बाजार है। आप जानते हैं कि बाजार में हजारों दुकानें होती हैं, जिनमें नाना प्रकार की सामग्री भरी रहती हैं। बाजार में अच्छी चीज भी मिल सकती है और बुरी से बुरी चीज भी मिलती है। बाजार में कम कीमत की चीज भी मिल सकती है और अधिक मूल्य की वस्तु भी बाजार में उपलब्ध हो सकती है। यह खरीदने वाले की भावना पर है कि वह क्या खरीदता है और क्या नहीं खरीदता है ? यदि कोई व्यक्ति वस्तु खरीद लेता है, तो वह उसे लेनी होगी, और उसकी कीमत चुकानी होगी। यदि कोई बाजार में से तटस्थ दर्शक के रूप में गुजरता है, कुछ भी नहीं खरीदता है, तो उसे दुकान की किसी वस्तु को लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, और न मूल्य चुकाने के लिए ही कोई दबाव डाला जा सकता है । संसार के बाजार में भी सभी कुछ है । वहाँ विष भी है और अमृत भी है । वहाँ सुख भी है और दुःख भी है । वहाँ स्वर्ग भी है और नरक भी है। यदि आपकी दृष्टि कुछ भी खरीदने की नहीं है, मात्र दर्शक की ही है, तब तो समस्त बाजार में से पार होकर भी आप किसी वस्तु को लेने के लिए बाध्य न होंगे। बाजार की वस्तु उसी से चिपकती है, जो उसे खरीदता है । जो व्यक्ति कुछ खरीदता ही नहीं, उस व्यक्ति के साथ कोई भी वस्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध चिपक नहीं सकती। यदि आप संसार रूपी बाजार की यात्रा खरीददार बनकर कर रहे हैं, संसार की वस्तुओं के साथ रागात्मक या द्वेषात्मक भाव रख रहे हैं, तो तन्निमित्तक कर्म आपके साथ अवश्य चिपक जाएगा।
इसके विपरीत यदि आप संसार रूपी बाजार की यात्रा केवल एक दर्शक के रूप में कर रहे हैं, राग-द्वेष का भाव नहीं रख रहे हैं, तो एक भी कर्म आपके साथ सम्बद्धन हो सकेगा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आप संसार के बाजार की यात्रा एक दर्शक के रूप में कीजिए, खरीददार बनकर नहीं । यदि एक बार भी कहीं कुछ खरीदा, राग-द्वेष का भाव किया, तो फिर वही समस्या खड़ी हो जाएगी। राग और द्वेष के वशीभूत होकर ही यह आत्मा अच्छे एवं बुरे कर्मों को प्राप्त करती है, जिसका सुख-दुःखात्मक फल उसे भोगना ही पड़ता है ।
आध्यात्म-साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए, राग और द्वेष के विकल्पों को जीतने की आवश्यकता है। जब तक जीवन में अनासक्ति का भाव और वीतरागता का भाव नहीं आएगा, तब तक जीवन का कल्याण नहीं हो सकेगा। वीतरागता की वह कला प्राप्त करो, जो ऐसी अद्भुत है, कि संसार सागर में गोता लगाने पर भी, उसकी एक भी बूँद आप पर असर नहीं डाल पाती और यह कला राग-द्वेष के विकल्प को जीतने की ही है। जब आत्मा में वीतराग भाव आ जाता है, तब संसार के किसी भी पदार्थ का उसके जीवन पर अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है ।
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