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बन्धन और मोक्ष ८३ संसार का विष विपरीत भाव ही मोक्ष है। जैसे दूध-दूध है और पानी-पानी है, यह दोनों की शुद्ध अवस्था है। जब दोनों को मिला दिया जाता है, तब यह दोनों की अशुद्ध अवस्था कहलाती है। इस प्रकार जीव और पुद्गल की संयोगावस्था संसार है और इन दोनों की वियोगावस्था ही मोक्ष है। इस मोक्ष अवस्था में जीव, जीव रह जाता है और पुद्गल, पुद्गल रह जाता है। वस्तुतः यही दोनों की विशुद्ध स्थिति है।।
यहाँ पर एक बात और भी विचारणीय है, और वह यह कि प्रत्येक मत और प्रत्येक पंथ, अपने को सच्चा समझता है और दूसरे को झूठा समझता है। वास्तव में कौन सच्चा है और कौन झूठा है, इसकी परीक्षा करना भी आवश्यक हो जाता है। मैं समझता हूँ, जो धर्म और दर्शन सत्य की उपासना करता है, फिर भले ही वह सत्य अपना हो अथवा दूसरों का हो, बिना किसी मताग्रह एवं पूर्वाग्रह के तटस्थ भाव से सत्य को सत्य समझना ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है। मैं आपसे पहले भी कह चुका हूँ कि सत्य तत्त्वों पर निश्चित दृष्टि, प्रतीति अर्थात् श्रद्धान ही मोक्ष-साधन का प्रथम अंग है। आध्यात्म-साधना में सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक होता है कि आत्मधर्म क्या है और आत्म-स्वभाव क्या है ? आत्मा और अनात्मा में भेद-विज्ञान को आध्यात्म-भाषा में सम्यक् दर्शन कहा जाता है। आत्मा स्वरूप का स्पष्ट दर्शन और कल्याण-पथ की दृढ़ आस्था, यही सम्यक् दर्शन है। कभी-कभी हमारी आस्था में
और हमारी श्रद्धा में भय से और लोभ से चलता और मलिनता आ जाती है। इस प्रकार के प्रसंग पर भेध-विज्ञान के सिद्धान्त से ही , उस चलता और मलिनता को दूर हटाया जा सकता है। सम्यक् दर्शन की ज्योति जगते ही, तत्त्व का स्पष्ट दर्शन होने लगता है। स्वानुभूति और स्वानुभव यही, सम्यक् दर्शन की सबसे संक्षिप्त परिभाषा हो सकती है। कुछ विचार-मूढ़ लोग बाह्य जड़-क्रियाकाण्ड में ही सम्यक दर्शन मानते हैं। किन्तु सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध किसी भी जड़-क्रियाकाण्ड से नहीं है, बल्कि उसका एकमात्र सम्बन्ध है, आत्म-भाव की विशुद्ध परिणति से। सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध न किसी देश-विशेष से है, न किसी जाति-विशेष से है और न किसी पंथविशेष से ही है। जब तक यह आत्मा स्वाधीन सुख को प्राप्त करने की ओर उन्मुख नहीं होती है, तब तक किसी भी प्रकार की धर्म-साधना से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। अपनी आत्मा में अविचल आस्था करना ही जब सम्यक दर्शन का वास्तविक अर्थ है, तब शरीरापेक्ष किसी भी बाह्य जड़ क्रियाकाण्ड में और उसके विविध विधि-निषेध में सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता।
सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है, किन्तु सम्यक् दर्शन एक ऐसा विषय है कि जीवन भर भी यदि इस पर विचार किया जाए, तब भी इस विषय का अन्त नहीं आ सकता। फिर भी, संसार के किसी भी पदार्थ को रागात्मक दृष्टि से देखना निश्चय ही अर्धम है और उसे स्वरूप-बोध की दृष्टि से देखना, निश्चय ही धर्म है। किसको देखना ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि इस
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