________________
८४. चिंतन की मनोभूमि
संसार में अनन्त पदार्थ हैं, तुम किस-किस को देखोगे ? यह जटिल समस्या है। अतः किसी ऐसे पदार्थ को देखो, जिसके देखने से अन्य किसी के देखने की इच्छा ही न रहे और वह पदार्थ अन्य कोई नहीं, एकमात्र आत्मा ही है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि किसको देखना ? इस प्रश्न का एक ही समाधान है, कि आत्मा को ही देखो, आत्मा को देखने पर ही हम अपने लक्ष्य को अधिगत कर सकेंगे। कैसे देखना ? इस प्रश्न के उत्तर में मुझे केवल इतना ही कहना है कि अभी तक यह आत्मा अनन्त काल से संसार के पदार्थों को मिथ्या दृष्टि से ही देखती रही है, किन्तु जब तक सम्यक् दृष्टि से नहीं देखा जायगा, तब तक आत्मा का कल्याण एवं उत्थान नहीं हो सकता। इस प्रकार जब हम वस्तुस्थिति का अध्ययन करते हैं, तब हमें जीवन की वास्तविकता का परिबोध हो जाता है ।
मुक्ति का मार्ग
भारत के आध्यात्म-दर्शन में स्पष्ट रूप से यह बतलाया गया है कि जीवन के इस चरम लक्ष्य को कोई भी साधक अपनी साधना के द्वारा प्राप्त कर सकता है। भले ही वह साधक गृहस्थ हो अथवा भिक्षु हो । पुरुष हो अथवा नारी हो । बाल हो अथवा वृद्ध हो । भारत का हो अथवा भारत के बाहर का हो। जाति, देश और काल की सीमाएँ शक्ति - पुञ्ज आत्मतत्त्व को अपने में आबद्ध नहीं कर सकतीं । विश्व का प्रत्येक व्यक्ति राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बन सकता है। किन्तु जीवन की इस ऊँचाई को पार करने की उसमें जो क्षमता और योग्यता है, तदनुकूल प्रयत्न भी होना चाहिए । भारतीय संस्कृति में महापुरुषों के उच्च एवं पवित्र जीवन की पूजा एवं प्रतिष्ठा तो की गई, किन्तु उसे कभी अप्राप्य नहीं बताया गया। जो अप्राप्य है, अलभ्य है, भारतीय संस्कृति उसे अपना आदर्श नहीं मान सकती। वह आदर्श उसी को मानती है— जो प्राप्य है, प्राप्त किया जा सकता है। यह बात अलग है कि उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयत्न करना पड़ता है, कितनी साधना करनी पड़ती है। भारतीय दर्शन यथार्थ और आदर्श में समन्वय करके चलता है। भारत का प्रत्येक नागरिक यह चाहता है कि मेरा पुत्र राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बने तथा मेरी पुत्री ब्राह्मी, सुन्दरी, सीता और सावित्री बने । जीवन का यह आदर्श ऐसा कुछ नहीं है, जिसे प्राप्त न किया जा सके। भारतीय जीवन की यह एक विशेषता है कि वह अपनी संतान का नाम भी महापुरुषों के नाम पर रखती है। भारत के घरों के कितने ही आँगन ऐसे हैं जिनमें राम, कृष्ण, शंकर, महावीर और गौतम खेलते हैं। सीता, सावित्री, पार्वती और त्रिशला भी कम नहीं हैं। इसके पीछे एक ध्येय है और वह यह कि जैसा तुम्हारा नाम है वैसे ही तुम बन सकते हो। ये नाम केवल आदर्श नहीं हैं, यथार्थ हैं । अतः स्पष्ट है कि एक साधक अपने जीवन में एक आदर्शवादी दृष्टिकोण को लेकर चलता है, किन्तु उसका वह आदर्श केवल आदर्श ही नहीं है, जीवन के धरातल पर उतरने वाला एक यथार्थवाद है। आदर्श को यथार्थ में बदलने
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org