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बन्धन और मोक्ष | ८५ की और यथार्थ को आदर्श में बदलने की कला का यहाँ चरम विकास हुआ है। भारतीय संस्कृति का यह एक स्वस्थ, संतुलित, सुन्दर एवं मधुर सिद्धान्त रहा है कि जीवन को शान्त एवं मधुर बनाने के लिए विचार को आचार में बदला जाए और आचार को विचार में बदला जाए । भारतीय दर्शन का आदर्श आत्मा के सम्बन्ध में सच्चिदानन्द रहा है । जहाँ सत् अर्थात् सत्ता, चित् अर्थात् ज्ञान और आनन्द अर्थात् सुख - तीनों की स्थिति चरम सीमा पर पहुँच जाती है, उसी अवस्था को यहाँ परमात्व-भाव कहा गया है। उसकी प्रप्ति के बाद अन्य कुछ प्राप्तव्य नहीं रह जाता। इसकी साधना कर लेने के बाद अन्य कुछ कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता। आप ही विचार कीजिए, जब अनन्त आनन्द मिल गया, अक्षय सुख मिल गया, तो फिर अब क्या पाना शेष रहा ? कुछ भी तो शेष नहीं बचा, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाए एवं साधना की जाए ! भारतीय दर्शन में इसी को मोक्ष कहा गया है, इसी को मुक्ति कहा गया है और इसी को मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य माना गया है। यहाँ एक बात याद रखने की है कि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का अनन्त आनन्द सत् है, असत् नहीं। वह केवल दुःखाभावरूप तुच्छ अभाव नहीं है, अपितु अनन्त काल से विकृत चले आ रहे आनन्द का शुद्ध रूप है। जब आत्मा स्वयं सत् है तो उसका आनन्द असत् कैसे हो सकता है ? जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका चित् (ज्ञान) असत् कैसे हो सकता है ? आत्मा में सत्, चित् और आनन्द शाश्वत हैं, नित्य हैं, इनका कभी अभाव नहीं होता ।
यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि जब आत्मा सुख रूप एवं आनन्द रूप है, तब उसमें दुःख कहाँ से आता है ? और क्यों आता है ? दुःख का मूल कारण बन्धन है। जब तक आत्मा की बद्धदशा है, तभी तक आनन्द विकृत होकर दुःख की स्थिति में बदला रहता है। दुःख एवं क्लेश का मूल कारण कर्म, अविद्या, माया एवं वासना को माना गया है। जब तक आत्मा कर्म के बन्धन से बद्ध है, तभी तक आनन्द विकृत रहता है, तभी तक उसे दुःख और क्लेश रहते हैं। जब आत्मा का कर्म के साथ संयोग न रहेगा, तब आनन्द अपने शुद्ध रूप में परिणत हो जाएगा, फलतः सर्व प्रकार के दुः ख एवं क्लेशों का क्षय हो जाएगा।
देह का नाश या शरीर का छूट जाना ही मोक्ष नहीं है। ग्राम, नगर और समाज को छोड़कर शून्य निर्जन वन में चले जाना ही मोक्ष नहीं है । इस प्रकार का मोक्ष तो एक बार नहीं, अनन्त - अनन्त बार हो चुका है। वास्तविक मोक्ष तो यही है, कि अनन्त - अनन्त काल से आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्म, अविद्या और माया को दूर किया जाए । विकारों से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है । जीवन्मुक्ति पहले हैं, और विदेहमुक्ति उसके बाद में है।
भारतीय दर्शन का लक्ष्य आनन्द है । भले ही वह दर्शन भारत की किसी भी परम्परा से सम्बद्ध रहा हो, किन्तु प्रत्येक आध्यात्मवादी दर्शन इस तथ्य को स्वीकार
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