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८६ चिंतन की मनोभूमि
करता है कि साधक के जीवन का एकमात्र लक्ष्य आनन्द है । यह प्रश्न अवश्य किया जा सकता है, कि उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति वर्तमान जीवन में भी हो सकती है, या नहीं ? क्या मृत्यु के बाद ही उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति होगी ? मैंने इस तथ्य को अनेक बार दुहराया है कि मुक्ति एवं मोक्ष जीवन का अंग है। स्वयं चैतन्य का ही एक रूप है। एक ओर संसार है और दूसरी ओर मुक्ति है। जब यह जीवन संसार हो सकता हैं, तब यह जीवन मोक्ष क्यों नहीं हो सकता ? जीवन से अलग न संसार है और न मोक्ष है। संसार और मोक्ष दोनों ही जीवन के दो पहलू हैं, दो दृष्टिकोण हैं । दोनों को समझने की आवश्यकता है। यह बात कितनी विचित्र है कि संसार को तो हम जीवन का अंग मान लें, किन्तु मुक्ति को जीवन का अंग न मानें। जैन दर्शन कहता है कि एक ओर करवट बदली तो संसार है और दूसरी ओर करवट बदली तो मोक्ष है । किन्तु दोनों ओर करवट बदलने का वाला जीवन शाश्वत है । वह संसार में भी है और मोक्ष में भी है । इसलिए मोक्ष जीवन का ही होता है, और जीवन में ही होता है, मृत्यु में नहीं । जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह भी आखिर क्या वस्तु है ? मृत्यु जीवन का ही एक परिणाम है, जीवन का ही एक पर्याय है। मोक्ष एवं मुक्ति यदि जीवनदशा में नहीं मिलती है, तो मृत्यु के बाद वह कैसे मिलेगी ? अतः भारतीय दर्शन का यह एक महान् आदर्श है, कि जीवन में ही मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्त किया जाए। इसको दर्शनशास्त्र में अरिहन्त - दशा एवं जीवन्मुक्त अवस्था कहा जाता है । जीवन्मुक्ति का अर्थ है—जीवन के रहते हुए ही, शरीर और श्वासों के चलते हुए ही, काम, आदि विकारों से इस आत्मा का सर्वथा मुक्त हो जाना । काम-क्रोध आदि विकार भी रहें और मुक्ति भी मिल जाए, यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार राग एवं द्वेष आदि कषायों को सर्वथा क्षय कर देना ही मुक्ति है ।
क्रोध
आत्मवादी दर्शन के समक्ष दो ही ध्रुव - केन्द्र हैं- आत्मा और उसकी मुक्ति । मोक्ष क्या वस्तु है ? इस प्रश्न के उत्तर में आध्यात्मवादी दर्शन घूम-फिर कर एक ही बात और एक ही स्वर में कहते है कि मोक्ष आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति का नाम है— जहाँ आत्मा सर्वथा अमल एवं धवल हो जाती है। मोक्ष में एवं मुक्ति में जीवन का विसर्जन न होकर उसके प्रति मानव- -बुद्धि में जो एक प्रकार का मिथ्या दृष्टिकोण है, उसी का विसर्जन होता है। मिथ्या दृष्टिकोण का विसर्जन हो जाना, साधक जीवन की एक बहुत बड़ी उत्क्रान्ति है । जैनदर्शन के अनुसार मिथ्यात्व के स्थान पर सम्यक् दर्शन का, मिथ्या ज्ञान के स्थान पर सम्यक् ज्ञान का और मिथ्या चारित्र के स्थान पर सम्यक् चारित्र का पूर्णतया एवं सर्वतोभावेन विकास हो जाना ही मोक्ष एवं मुक्ति है। मोक्ष को जब आत्मा की विशुद्ध स्थिति स्वीकार कर लिया जाता है, तब मोक्ष के विपरीत आत्मा की अशुद्ध स्थिति को ही संसार कहा जाता है। संसार क्या है ? यह भी एक विकट प्रश्न है। स्थूल रूप में संसार का अर्थ आकाश, पाताल, सूर्य, चन्द्र, भूमि, वायु, जल और अग्नि आदि समझा जाता है । परन्तु क्या वस्तुतः
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