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बन्धन और मोक्ष ८७ आध्यात्म-भाषा में यही संसार है ? क्या आध्यात्म-शास्त्र इन सब को छोड़ने की बात कहता है ? क्या यह सम्भव है कि भौतिक जीवन के रहते इन भौतिक तत्त्वों को छोड़ा जा सके ? पूर्ण आध्यात्मिक जीवन में भी, मोक्ष में भी आत्मा रहेगी तो लोक में ही, लोकाकाश में ही। लोकाकाश के बाहर कहाँ जाएगी? जब तक व्यक्ति वैराग्य की भाषा में संसार छोड़ने की बात कहता है, तब वह क्या छोड़ता है ? अशन, वसन और भोजन इनमें से वह क्या छोड़ सकता है ? कल्पना कीजिए, कदाचित इनको भी वह छोड़ दे, फिर भी अपने तन और मन को वह कैसे छोड़ सकता है ? इस भूमि और आकाश का परित्याग भी वह कैसे कर सकेगा? तब फिर उसने क्या छोड़ा? हम वैराग्य की भाषा में यह कह सकते हैं कि एक वैराग्यशील ज्ञानी ने संसार को छोड़ दिया, किन्तु इस संसार-परित्याग का क्या अर्थ है ? संसार छोड़कर वह कहाँ चला गया ? और उसने छोड़ा भी क्या ? वही शरीर रहा, वस्त्र भी वही रहा, भले ही उसकी बनावट में कुछ परिवर्तन आ गया हो ? एक गृहस्थ की वेशभूषा के स्थान पर एक साधु का वेश आ गया हो। शरीर पोषण के लिए वही भोजन, वही जल और वही वायु रही, तब संसार छोड़ने का क्या अर्थ हुआ। इससे स्पष्ट होता है कि यह सब कुछ संसार नहीं है। तब संसार क्या है ? आध्यात्म-भाषा में यह कहा जाता है, कि वैषयिक आकांक्षाओं, कामनाओं और इच्छाओं का हृदय में जो अनन्त काल से आवास है, वस्तुतः वही बन्धन है, वही संसार है। उस आकांक्षा का नाम और वासना का परित्याग ही सच्चा वैराग्य है। कामनाओं की दासता से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है। जब साधक को अपने चित्त में आनन्द की उपलिब्ध होती है, जब उसके जीवन में निराकुलता की भावना आती है, जब साधक के जीवन में व्याकुलता-रहित शान्त स्थिति आती है और यह आकुलता एवं व्याकुलता-रहित अवस्था जितने काल के लिए चित्त में बनी रहती है, शुद्ध आनन्द का वह एक मधुर क्षण भी मानव-जीवन की क्षणिक मुक्ति ही है। भले ही आज वह स्थायी न हो और साधक का उस पर पूर्ण अधिकार न हो पाया हो, परन्तु जिस दिन वह उस क्षणिकता को स्थायित्व में बदल कर मुक्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेगा, उसी दिन, उसी क्षण उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाएगी। जो आध्यात्म-साधक शरीर में रह कर भी शरीर में नहीं रहता, जो जीवन में रह कर भी जीवन में नहीं रहता और जो संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता, वही वस्तुतः विमुक्त आत्मा है। देह के रहते हुए भी, देह की ममता में बद्ध न होना, सच्ची मुक्ति है। जो देह में रहकर भी देह-भाव में आसक्त न होकर देहातीत अवस्था में पहुँच जाता है, वही अरिहन्त है, वही जिन है और वही वीतराग है। आध्यात्म-दर्शन साधक को जगत् से भागते फिरने की शिक्षा नहीं देता, वह तो कहता है कि तुम प्रारब्ध कर्मजन्य भोग में रहकर भी भोग के विकारों और विकल्पों के बन्धन से मुक्त होकर रहो, यही जीवन की सबसे बड़ी साधना है। जीवन की प्रारब्ध-प्रक्रिया से भयभीत होकर कहाँ तक भागते रहोगे ?
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