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________________ ८८ चिंतन को मनोभूमि और कब तक भागते रहोगे ? आखिर, एक दिन उससे मोर्चा लेना ही होगा। देह आदि की तथाकथित आवश्यकता की पूर्ति करते हुए भी विकारों से निर्लिप्त रहना ही होगा, अन्तर्द्वन्द्व में विजेता बनना ही होगा, यही जीवन की सच्ची कला है। भारत के आध्यात्म साधकों की जीवन-गाथा एक-से-एक सुन्दर है, एक-सेएक मधुर है। भारत के आध्यात्म-साधक शूली की नुकीली नोंक पर चढ़कर भी मुक्ति का राग अलापते रहे हैं। भारत के आध्यात्मसाधक शूलों की राह पर चलंकर भी, मुक्ति के मार्ग से विमुख नहीं हो सके हैं। चाहे वे भवन में रहे हों या वन में रहे हों; चाहे वे एकाकी रहे हों या अनेकों के मध्य में रहे हों; चाहे वे सुख में रहे हों या द:ख में रहें हों-जीवन की प्रत्येक स्थिति में वे अपनी मक्ति के लक्ष्य को भल नहीं सके हैं। शूली की तीक्ष्ण नोंक पर और फूलों की कोमल सेज पर अथवा रंगीले राजमहलों में या वीरान जंगलों में रहने वाले ये आध्यात्म-साधक अपने जीवन का एक ही लक्ष्य लेकर चले और वह लक्ष्य था—मुक्ति एवं मोक्ष। और तो क्या, भारत की ललनाएँ अपने शिशुओं को पालने में झुलाते हुए भी उन्हें आध्यात्मवाद की लोरियाँ सुनाती रही हैं। मदालसा जैसी महानारियाँ गाती हैं "तू शुद्ध है, निरंजन है और निर्विकार है। इस संसार में त संसार की माया में आबद्ध होने के लिए नहीं आया है। तेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है,भव-बन्धनों का विच्छेद करना, माया के जाल को काट देना, और सर्व प्रकार के प्रपंचों एवं समग्र द्वन्द्वों से विमुक्त होकर रहना ।" जिस भारत की ललनाएँ अपने दुधमुहे शिशुओं को पालने में झुलाते हुए लोरियों में भी आध्यात्मवाद के संगीत सुनाती हैं, उस भारत के समक्ष मोक्ष एवं मुक्ति से ऊँचा अन्य कोई लक्ष हो ही नहीं सकता। अब प्रश्न यह उठता है कि जिस मुक्ति की चर्चा भारत का आध्यात्मवादी दर्शन जन्म-घुट्टी से लेकर मृत्यु-पर्यन्त करता रहता है, जीवन के किसी भी क्षण में वह उसे विस्मृत नहीं कर सकता, आखिर उसे मुक्ति का उपाय और साधन क्या है ? क्योंकि साधक बिना साधन के सिद्धि को प्राप्त कैसे कर सकता है ? कल्पना कीजिए, आपके समक्ष एक वह साधक है, जिसने मुक्ति की सत्ता और स्थिति पर विश्वास कर लिया है, जिसने मुक्ति प्राप्ति का अपना लक्ष्य भी स्थिर कर लिया है, यह सब कुछ तो ठीक है--परन्तु यदि उसे यह मालूम न हो कि मुक्ति का साधन और उपाय क्या है, तब उसके सामने एक बड़ी विकट समस्या आ जाती है। साधक के जीवन में इस प्रकार की स्थिति बड़ी विचित्र और बड़ी विकट होती है। यदि कोई अकुशल नाविक नाव में बैठकर किसी विशाल नदी को पार कर रहा हो, और ऐसे ही चलते-चलते मँझधार में पहुँच भी चुका हो, परन्तु इस.प्रकार की स्थिति में यदि सहसा झंझावात आ जाए, तूफान आ जाए, तब वह अपने को कैसे बचा सकेगा, यदि उसने बचने का उपाय पहले से नहीं सीखा है ? तो, नौका एक माध्यम है जल धारा को पार करने के लिए। परन्तु नौका चलाने की कला यदि ठीक तरह नहीं सीखी है, तो कैसे पार हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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