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________________ बन्धन और मोक्ष ८९ सकता है ? यही स्थिति संसार सागर को शरीर रूपी नौका से पार करते हुए आध्यात्म-साधक की होती है। मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, उससे भी बढ़कर आवश्यक यह है कि एक साधक उसे कैसे प्राप्त कर सके ? भारत के आध्यात्मवादी दर्शन में मात्र मुक्ति के लक्ष्य को स्थिर ही नहीं किया गया और न यही कहा गया कि मुक्ति एक लक्ष्य है और वह एक आदर्श है, बल्कि, उस लक्ष्य तक पहुँचने ओर उसे प्राप्त करने का मार्ग और उपाय भी बताया गया है। मुक्ति के आदर्श को बताकर साधक से यह कभी नहीं कहा गया कि वह केवल तुम्हारे जीवन का आदर्श है, और जिसे तुम कभी प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई अमोघ साधन नहीं है। इसके विपरीत उसे सतत एक ही प्ररेणा दी गई कि मुक्ति का आदर्श अपने में बहुत ऊँचा है, किन्तु वह अलभ्य नहीं है। तुम उसे अपनी साधना के द्वारा एक दिन अवश्य प्राप्त कर सकते हो। जिस आदर्श साध्य की सिद्धि का साधन न हो, वह साध्य ही कैसा ? आश्चर्य है, कुछ लोग आदर्श की बड़ी विचित्र व्याख्या करते हैं । उनके जीवन के शब्द - कोष में आदर्श का अर्थ है- 'मानव जीवन की वह उच्चता एवं पवित्रता, जिसकी कल्पना तो की जा सके, किन्तु जहाँ पहुँचा न जा सके।' मेरे विचार में आदर्श की यह व्याख्या सर्वथा भ्रान्त है, बिल्कुल गलत है। भारत की आध्यात्म संस्कृति कभी यह स्वीकार नहीं कर सकती कि ' आदर्श - आदर्श है, वह कभी यथार्थ की भूमिका पर नहीं उतर सकता। हम आदर्श पर न कभी पहुँचे हैं और न कभी पहुँचेंगे।' आध्यात्मवादी दर्शन यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि जीवन की उच्चता और पवित्रता का हम चिन्तन तो करें किन्तु जीवन में उसका अनुभव न कर सकें। मैं उस साधना को साधना मानने के लिए तैयार नहीं हूँ, जिसका चिन्तन तो आकर्षक एवं उत्कृष्ट हो, किन्तु वह चिन्तन साक्षात्कार एवं अनुभव का रूप न ले सके। मात्र कल्पना एवं स्वप्नलोक के आदर्श में भारत के आध्यात्मवादी दर्शन की आस्था नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए । यहाँ तो चिन्तन को अनुभव बनना पड़ता है और अनुभव को चिन्तन बनना पड़ता है। चिन्तन और अनुभव यहाँ सहजन्मा और सदा से सहगामी रहे हैं। उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। मानव-जीवन का आदर्श स्वप्नलोक की वस्तु नहीं है कि ज्यों-ज्यों उसकी ओर आगे बढ़ते जाएँ, त्यों-त्यों वह दूर से दूरतर होती जाए। आदर्श उस अनन्त क्षितिज के समान नहीं है, जो दृष्टिगोचर तो होता हो, किन्तु कभी सुलभ न हो । धरती और आकाश के मिलन का प्रतीक वह क्षितिज, जो केवल दिखलायी तो पड़ता है, किन्तु वास्तव में जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता मानव-जीवन का आदर्श इस प्रकार का नहीं है। भारत का आध्यात्मवादी दर्शन मानव-जीवन के आदर्श को भटकने की वस्तु नहीं मानता। वह तो जीवन के यथार्थ जागरण का एक मूलभूत तत्त्व है । उसे पकड़ा जा सकता है, उसे ग्रहण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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