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९० चिंतन की मनोभूमि जा सकता है और उसे जीवन के धरातल पर शत-प्रतिशत उतारा जा सकता है। मोक्ष केवल आदर्श ही नहीं, बल्कि, वह जीवन का एक यथार्थ तथ्य है। यदि मोक्ष केवल आदर्श ही होता, यथार्थ न होता, तो उसके लिए साधन और साधना का कथन ही व्यर्थ होता। मोक्ष अदृष्ट दैवी हाथों में रहने वाली वस्तु नहीं है, जिसे मनुष्य प्रथम तो अपने जीवन में प्राप्त ही न कर सके अथवा प्राप्त करे भी तो रोने-धोने, हाथ पसारने और दया की भीख माँगने पर, अन्यथा नहीं। जैन-दर्शन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि साधक! मुक्ति किसी दूसरे हाथों की चीज नहीं है। और न वह केवल कल्पना एवं स्वप्नलोक की ही वस्तु है, बल्कि, यह यथार्थ की चीज है; जिसके लिए प्रयत्न और साधना की जा सकती है तथा जिसे सतत अभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जैन-दर्शन ने स्पष्ट शब्दों में यह उद्घोषणा की है कि प्रत्येक साधक के अपने ही हाथों में मुक्ति को अधिगत करने का उपाय एवं साधन है। और वह साधन क्या है ? वह है सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। इन तीनों का समुचित रूप ही मुक्ति का वास्तविक उपाय एवं साधन है।
कुछ विचारक भारत के आध्यात्मवादी दर्शन को निराशावादी दर्शन कहते हैं। भारत का अध्यात्मवादी दर्शन निराशावादी क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है कि वह वैराग्य की बात करता है वह संसार से भागने की बात करता है, वह दुःख और क्लेश की बात करता है। परन्तु वैराग्यवाद और दुःखवाद के कारण उसे निराशावादी दर्शन कहना, कहाँ तक उचित है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। मैं इस तथ्य को स्वीकार करता हूँ कि अवश्य ही आध्यात्मवादी दर्शन ने दुःख, क्लेश
और बन्धन से छुटकारा प्राप्त करने की बात की है। वैराग्य-रस से आप्लावित कुछ जीवन-गाथाएँ इस प्रकार को मिल सकती हैं, जिनके आधार पर अन्य विचारकों को भारत के आध्यात्मवादी दर्शन को निराशावादी दर्शन कहने का दुस्साहस करना पड़ा। किन्तु वस्तु-स्थिति का स्पर्श करने पर ज्ञात होता है कि यह केवल विचारकों का मतिभ्रम-मात्र है। भारतीय आध्यात्मवादी दर्शन का विकास अवश्य ही दुःख एवं क्लेश के मूल में से हुआ है, किन्तु मैं यह कहता हूँ कि भारतीय दर्शन ही क्यों, विश्व के समग्र दर्शनों का जन्म इस दुःख एवं क्लेश में से ही तो हुआ है। मानव के वर्तमान दु:खाकुल जीवन से ही संसार के समग्र दर्शनों का प्रदुर्भाव हुआ है। इस तथ्य को कैसे भुलाया जा सकता है कि हमारे जीवन में दुःख एवं क्लेश नहीं हैं। यदि दुःख एवं क्लेश है, तो उससे छूटने का उपाय भी सोचना ही होगा। और यही सब कुछ तो आध्यात्मवादी दर्शन ने किया है, फिर उसे निराशावादी दर्शन क्यों कहा जाता है ? निराशावादी तो वह तब होता, जबकि वह दुःख और क्लेश की बात तो करता, विलाप एवं रुदन तो करता, किन्तु उसे दूर करने का कोई उपाय न बतलाता। पर बात ऐसी नहीं है। आध्यात्मवादी दर्शन ने यदि मानव-जीवन के दुःख एवं क्लेशों की ओर संकेत किया है, तो उसने वह मार्ग भी बतलाया है जिस पर चलकर मनुष्य
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