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________________ बन्धन और मोक्ष ९१ सर्व प्रकार के दुःखों से विमुक्त हो सकता है। और वह मार्ग है—त्याग, वैराग्य, अनासक्ति और जीवन का शोधन। आध्यात्मवादी दर्शन का कहना है कि द:ख है, और दुःख का कारण है। दुःख अकारण नहीं है क्योंकि जो अकारण होता है, उसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, किन्तु जिसका कारण होता है, यथावसर उसका निराकरण भी अवश्य ही किया जा सकता है। कल्पना कीजिए-किसी को दूध गरम करना है। तब क्या होगा ? दूध को पात्र में डालकर अँगीठी पर रख देना होगा और उसके नीचे आग जला देनी होगी। कुछ काल बाद दूध गरम होगा, उसमें उबाल आ जाएगा। दूध का उबलना तब तक चालू रहेगा, जब तक कि उसके नीचे आग जल रही है। नीचे की आग भी जलती रहे और दूध का उबलना बन्द हो जाए, यह कैसे हो सकता है ? उष्णता का कारण आग है, और जब तक वह नीचे जल रही है, तब तक दूध के उबाल और उफान को शान्त करना है, तो उसका उपाय यह नहीं है कि दो-चार पानी के छींटे दे दिए जायँ और बस! अपितु उसका वास्तविक उपाय यही है, कि नीचे जलने वाली आग को या तो बुझा दिया जाए या उसे नीचे से निकाल दिया जाए। इसी प्रकार आध्यात्म-साधना के क्षेत्र में दुःख को दूर करने का, उस दुःख को दूर करने का, जो अनादिकाल से आत्मा में रहा है, वास्तविक उपाय यही है कि उसे केवल ऊपरी सतह से दूर करने की अपेक्षा उसके मूलकारण का ही उच्छेद कर दिया जाए। मानव-जीवन में दुःख एवं क्लेश की सत्ता एवं स्थिति इस तथ्य एवं सत्य को प्रमाणित करती है कि दुःख का मूल कारण अन्यत्र नहीं, हमारे अन्दर ही है। जब तक उसे दूर नहीं किया जाएगा, तब तक दुःख की ज्वाला शान्त नहीं होगी। आध्यात्मवादी दर्शन कहता है कि दुःख है, क्योंकि दुःख का कारण है और वह कारण बाहर में नहीं, स्वयं तुम्हारे अन्दर में है। दु:ख के कारण का उच्छेद कर देने पर दुःख का उबाल और उफान स्वतः ही शान्त हो जाएगा। तब दुःख का अस्तित्व समाप्त होकर सहज और निर्मल आनन्द का अमृत-सागर हिलोरें लेने लगेगा। शरीर में रोग होता है, तभी उसका इलाज किया जा सकता है। रोग होगा, तो रोग का इलाज भी अवश्य होगा। यदि कोई रोगी वैद्य के पास आए और वैद्य उसे यह कह दे कि आपके शरीर में कोई रोग नहीं है, तो उसका यह कथन गलत होगा। शरीर में यदि रोग की सत्ता और स्थिति है, तो उसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है। शरीर में रोग की सत्ता स्वीकार करने पर भी यदि वैद्य यह कहता है कि रोग तो है, किन्तु उसका इलाज नहीं हो सकता, तो यह भी गलत है। जब रोग है, तब उसका इलाज क्यों नहीं हो सकता? संसार का कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इस तर्क को स्वीकार नहीं कर सकता कि रोग होने पर उसका प्रतिकार न हो सके। रोग को दुस्साध्य भले ही कहा जा सके, किन्तु असाध्य नहीं कहा जा सकता। यदि चिकित्सा के द्वारा रोग का प्रतिकार न किया जा सके, तो संसार में चिकित्सा-शास्त्र का कोई उपयोग न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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