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बन्धन और मोक्ष ७७ उसे चला सके, ठहरा सके अथवा अन्य कोई कार्य करा सके। जब इसकी इच्छा होती है, वह चलता है, जब उसकी इच्छा होती है, तब वह ठहरता है, जब उसकी इच्छा होती है, तभी वह अपना अन्य कोई कार्य सम्पादन करता है। अन्य पदार्थ तो केवल उसकीआज्ञा-पालन के लिए तैयार खड़े रहते हैं। कुछ भी करने वाला और कछ भीन करने वाला तो स्वयं जीव ही है। अन्य पदार्थ उसके कार्य में अथवा क्रिया-कलाप में निमित्त मात्र ही रहते हैं। और, निमित्त भी प्रेरक नहीं, केवल उदासीन है। यह जड़ शरीर और इसके अन्दर रहने वाली इन्द्रियाँ और मन भी तभी तक कार्य करते हैं, जब तक जीव रूपी राजा इस शरीर रूपी प्रासाद में रहता है। उसकी सत्ता पर ही इस संसार के सारे खेल चलते हैं। इस जड़ात्मक जगत् का अधिष्ठाता और चक्रवर्ती यह जीव जब तक इस देह में है; तभी तक यह देह हरकत करती है, इन्द्रियाँ अपनी प्रवृत्ति करती हैं और मन अपना काम करता है। इस तन में से जब चेतन जीव निकल जाता है, तब तन, मन और इन्द्रियाँ सब निरर्थक हो जाती हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि समस्त तत्त्वों में मुख्य तत्त्व जीव है, द्रव्यों में मुख्य द्रव्य जीव है और पदार्थों में प्रधान पदार्थ भी जीव ही हैं। इस अनन्त सृष्टि का अधिनायकत्व जो जीव को मिला है, उसका मुख्य कारण, उसका ज्ञान गुण ही है। ज्ञान होने के कारण ही यह ज्ञाता है और शेष संसार ज्ञेय है। जीव उपभोक्ता और शेष समग्र संसार उसका उपभोग्य है। ज्ञाता है, तभी ज्ञेय की सार्थकता है, उपभोक्ता है, तभी उपभोग्य की सफलता है। इस अनन्त विश्व में जीवात्मा अपने शुभ या अशुभ कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप भी कर सकता है और पुण्य भी कर सकता है। वह अच्छा भी कर सकता है और बुरा भी कर सकता है। पाप करके यह नरक में जा सकता है, पुण्य करके यह स्वर्ग में जा सकता है तथा संवर एवं निर्जरा रूप धर्म की साधना करके, वह मोक्ष में भी जा सकता है। मोक्ष अथवा मुक्ति जीव की ही होती है, अजीव की नहीं। जब हम अजीव शब्द का उच्चारण करते हैं, तो उसमें भी मुख्य रूप से जीव की ध्वनि ही ध्वनित होती है क्योंकि जीव का विपरीत भाव ही तो अजीव है। कुछ लोग तर्क करते हैं कि जीव से पहले अजीव को क्यों नहीं रक्खा ? यदि सात-तत्त्वों में, षड़ द्रव्यों में और नव पदार्थों में पहले जीव को न कहकर, अजीव का ही उल्लेख किया जाता, तो क्या आपत्ति थी ? सबसे पहले हमारी अनुभूति का विषय यह जड़ पदार्थ ही बनता है। यह शरीर भी जड़ है, इन्द्रियाँ भी जड़ हैं और मन भी जड़ है। जीवन की प्रत्येक क्रिया जड़ व पुद्गल पर ही आधारित है फिर जीव से पूर्व अजीव क्यों नहीं?
आपने देखा कि कुछ लोग अजीव की प्रमुखता के समर्थन में किस प्रकार तर्क करते हैं ? मेरा उन लोगों से एक ही प्रतिप्रश्न है, एक ही प्रतितर्क है। यदि इस तन में से चेतन को निकाल दें, तो इस शरीर की क्या स्थिति रहेगी? चेतनहीन और जीव-विहीन शरीर को आप लोग शव कहते हैं। याद रखिए, इस शव के सम्बन्ध से
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