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________________ |७६चिंतन की मनोभूमि अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ये पाँचों द्रव्य जीव के सेवक और दास हैं। इनको इतना भी अधिकार नहीं है कि वे जीव रूपी राजा की आज्ञा में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित कर सकें। जीव रूपी राजा को धर्मास्तिकाय सेवक यह आदेश नहीं दे सकता कि चलो, जल्दी करो। अधर्मास्तिकाय सेवक उस राजा को यह नहीं कह सकता कि जरा ठहर जाओ। आकाशास्तिकाय यह नहीं कह सकता कि यहाँ ठहरिए और यहाँ नहीं। पुद्गलास्तिकाय सदा उसके उपभोग के लिए तैयार खड़ा रहता है। काल भी उसकी पर्याय परिवर्तन के लिए प्रतिक्षण तैयार रहता है। ये सब जीव के प्रेरक कारण नहीं, मात्र उदासीन और तटस्थ कारण ही होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सात तत्त्वों में, षड्द्रव्यों में और नव पदार्थों में सबसे मुख्य और सबसे प्रधान जीव ही है। इसी आधार पर जीव को चक्रवर्ती और अधिष्ठाता कहा जाता है। एक बात और है, हम जीव को अपनी अलंकृत भाषा में भले ही चक्रवर्ती कह लें, वस्तुतः यह चक्रवर्ती से भी महान् है, क्योंकि चक्रवर्ती केवल सीमित क्षेत्र का ही अधिपति होता है। सीमा के बाहर एक अणुमात्र पर भी उसका अधिकार नहीं होता और न ही उसका शासन चल सकता है। परन्तु जीव में वह शक्ति है कि जब वह केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है एवं अरिहन्त बन जाता है, तब वह त्रिलोकनाथ और त्रिलोक-पूजित हो जाता है। त्रिलोक के समक्ष चक्रवर्ती के छह खण्ड का विशाल राज्य भी महासिन्धु में, मात्र एक बिन्दु के समान ही होता है। चक्रवर्ती को चक्रवर्ती अन्य कोई व्यक्ति नहीं बनाता है, वह अपनी निज की शक्ति से ही चक्रवर्ती बनता है। इसी प्रकार इस आत्मा को भी त्रिलोकनाथ और त्रिलोकपूजित बनाने वाली अन्य कोई शक्ति नहीं है, आत्मा स्वयं अपनी शक्ति से ही, तीन लोक का नाथ और तीन लोक का पूज्य बन जाती है। आत्मा को परमात्मा बनाने वाला अन्य कोई नहीं होता, बल्कि स्वयं आत्मा ही अपने विकल्प और विकारों को नष्ट करके, आत्मा से परमात्मा बन जाती है। आप इस बात को जानते ही हैं कि सिंह को वन-राज कहा जाता है। वन-राज का अर्थ है–वन का राजा, वन का सम्राट और वन का चक्रवर्ती। मैं आपसे पूछता हूँ कि आखिर उस सिंह को वन का राजा किसने बनाया ? कौन ऐसा पशु एवं पक्षी है, जो आगे बढ़कर उसका राज्याभिषेक करता है। स्पष्ट है कि सिंह को वन का राज्य दिया नहीं जाता, बल्कि वह स्वयं अपनी शक्ति से उसको प्राप्त करता है। यहाँ पर भी यही बात सत्य है कि इस जीव को त्रिलोक का नाथ दूसरा कोई बनाने वाला नहीं है, यह स्वयं ही अपनी शक्ति से तीन लोक का नाथ बन जाता है। जैसे राजा के सेवक सदा राजा के आदेश का पालन करने के लिए तत्पर खड़े रहते हैं, वैसे ही जीव रूपी राजा के आदेश का पालन करने के लिए, अन्य द्रव्य, अन्य तत्त्व और अन्य पदार्थ सदा तत्पर खड़े रहते हैं। किसी में यह शक्ति नहीं है कि उसकी इच्छा के विरुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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