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________________ बन्धन और मोक्ष ७५ करता है, उसी में एकरूपता, एकरसता और समरसता प्राप्त कर लेता है। जीवन में समरसभाव की उपलब्धि होना ही, वस्तुतः सम्यक् - दर्शन है । 1 आध्यात्म-साधना के क्षेत्र में विशुद्ध ज्ञान का बड़ा ही महत्त्व है । भारत के आध्यात्मवादी दर्शनों में इस विषय में किसी प्रकार का विवाद नहीं है कि ज्ञान भी मुक्ति का एक साधन है । वेदान्त और सांख्य एकमात्र तत्त्व-ज्ञान अथवा आत्म-ज्ञान को ही मुक्ति का साधन स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ दर्शन केवल भक्ति को ही, मुक्ति का सोपान मानते हैं और कुछ केवल क्रियाकाण्ड एवं कर्म को ही मुक्ति का कारण मानते हैं । जैन-दर्शन का कथन है कि तीनों का समन्वय ही, मुक्ति का साधन हो सकता है। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि अज्ञान और वासना के सघन जंगल को जलाकर भस्म करने वाला दावानल ज्ञान ही है। ज्ञान का अर्थ यहाँ पर किसी पुस्तक या पोथी का ज्ञान नहीं है, बल्कि अपने स्वरूप का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है । "मैं हूँ" यह ज्ञान जिसे हो गया, उसे फिर अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती । परन्तु यह स्वरूप का ज्ञान भी तभी सम्भव है, जबकि उससे पहले सम्यक् दर्शन हो चुका हो। क्योंकि सम्यक् दर्शन के बिना जैनत्व का एक अंश भी प्राप्त नहीं हो सकता । यदि सम्यक् दर्शन की एक किरण भी जीवन-क्षितिज पर चमक जाती है, तो गहन से गहन गर्त में पतित आत्मा के भी उद्धार की आशा हो जाती है। सम्यक् दर्शन की उस किरण का प्रकाश भले ही कितना ही मन्द क्यों न हो, परन्तु उसमें आत्मा को परमात्मा बनाने की शक्ति होती है। याद रखिए, उस निरंजन, निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है, वह आपके अन्दर ही है । जिस प्रकार घनघोर घटाओं के बीच, बिजली की क्षीणरेखा के चमक जाने पर क्षणमात्र के लिए सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है, उसी प्रकार एक क्षण के लिए भी सम्यक् दर्शन की ज्योति के प्रकट हो जाने पर कभी न कभी आत्मा का उद्धार अवश्य ही हो जायेगा। बिजली की चमक में सब कुछ दृष्टिगत हो जाता है, भले ही वह कुछ क्षण के लिए क्यों न हो। इसी प्रकार यदि परमार्थ तत्त्व के प्रकाश की एक किरण भी अन्तर्हृदय में चमक जाती है, तो फिर भले ही वह कितनी क्षीण क्यों न हो, उसके प्रकाश में प्राप्त ज्ञान सम्यग् ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान को सम्यक् ज्ञान बनाने वाला, सम्यक् दर्शन ही है। यह सम्यक् दर्शन जीवन का मूलभूत तत्त्व है। तत्त्वों में अथवा पदार्थों में सबसे पहला जीव ही है। जीव, चेतना, आत्मा और प्राणी ये सब पयार्यवाची शब्द हैं। इस अनन्त विश्व में सबसे महत्त्वपूर्ण यदि कोई तत्त्व है, तो वह आत्मा ही है । 'मैं' की सत्ता का विश्वास और बोध यही आध्यात्मसाधना का चरम लक्ष्य है । इस समग्र संसार में जो कुछ भी ज्ञात एवं अज्ञात है, उस सबका चक्रवर्ती एवं अधिष्ठाता यह आत्मा ही है। आत्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य दूसरे तत्त्व या पदार्थ हैं, वे सब उसके सेवक या दास हैं । धर्मास्तिकाय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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