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७४ चिंतन की मनोभूमि
मुक्ति का साधन :
जैन धर्म के अनुसार आत्मा शरीर और इन्द्रियों से पृथक् है । मन और मस्तिष्क से भी भिन्न है । वह जो कुछ भी है, इस मिट्टी के ढेर से परे है। वह जन्म लेकर भी अजन्मा है और मर कर भी अमर है ।
कुछ लोग आत्मा को परमात्मा या ईश्वर का अंश कहते हैं । परन्तु वह किसी का भी अंश - वंश नहीं है, किसी परमात्मा का स्फुलिंग नहीं है । वह तो स्वयं पूर्ण परमात्मा विशुद्ध आत्मा है। आज वह बेबस है, बे-भान है, लाचार है, परन्तु जब वह मोह-माया और अज्ञान के परदों को भेद कर, उन्हें छिन्न-भिन्न करके अलग कर देगा, तो अपने पूर्ण परमात्मस्वरूप में चमक उठेगा ! अनन्तानन्त कैवल्य - ज्योति जगमगा उठेगी उसके अन्दर !
भारतीय दर्शनों में, जिनका मूलस्वर मैं एक ही प्रकार सुनता हूँ, किन्तु अपनी बात को कहने की जिनकी शैली भिन्न-भिन्न है, प्रश्न उठाया गया है कि मोक्ष एवं मुक्ति का मार्ग, उपाय, साधन एवं कारण क्या है ? यह प्रश्न बहुत ही गम्भीर है । प्रत्येक युग के समर्थ आचार्य ने अपने युग की जन-चेतना के समक्ष इसका समाधान करने का प्रयत्न किया है। किन्तु जैसे-जैसे युग आगे बढ़ा, वैसे-वैसे वह प्रश्न भी आगे बढ़ता रहा, और हजार वर्ष पहले, जैसा प्रश्न था, वैसा प्रश्न आज भी है । भौतिकवादी दर्शन को छोड़कर समग्र आध्यात्मवादी दर्शनं एवं साध्य एक ही हैमोक्ष एवं मुक्ति | साध्य में किसी प्रकार का विवाद नहीं है, विवाद है केवल साधन में। एक ने कहा है— मुक्ति का एकमात्र साधन ज्ञान ही है। दूसरे ने कहा है-मुक्ति का एकमात्र साधन, भक्ति ही है और तीसरे ने कहा है, मुक्ति का एकमात्र साधन कर्म है। मैं विचार करता हूँ कि एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए, उसके साधन के रूप में किसी ने ज्ञान पर बल दिया, किसी ने भक्ति पर बल दिया और किसी ने कर्म पर बल दिया । संसार में जितने भी साधना के मार्ग हैं, क्रिया-कलाप हैं अथवा क्रियाकाण्ड हैं, वे सब साधना के अलंकार तो हो सकते हैं, किन्तु उसकी मूल आत्मा नहीं । यहाँ मेरा उद्देश्य किसी भी पंथ का विरोध करना नहीं है, बल्कि मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि जो कुछ भी किया जाए, सोच-समझ कर किया जाए। प्रत्येक साधक की रुचि अलग-अलग होती है, कोई दान करता है, कोई तप करता है और कोई सेवा करता है। दान, तप और सेवा तीनों धर्म हैं, किन्तु कब ? जबकि विवेक का दीपक घट में प्रकट हो गया हो। इसी प्रकार कोई सत्य की साधना करता है, कोई अहिंसा की साधना करता है और कोई ब्रह्मचर्य की साधना करता है। किसी भी प्रकार की साधना की जाए, कोई आपत्ति की बात नहीं है, परन्तु ध्यान इतना ही रहना चाहिए कि वह साधना विवेक के प्रकाश में चलती रहे। अलग-अलग राह पर चलना भी कोई पाप नहीं है। यदि आत्मा के मूलस्वरूप की दृष्टि को पकड़ लिया है, तो जिस व्यक्ति के हृदय में विवेक की दीपक का प्रकाश जगमगाता है, वह जो भी साधना
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