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________________ बन्धन और मोक्ष ७३ लगे कि भगवन् ! जब आपके ज्ञान की जरूरत थी और जब हममें कुछ करने की सामर्थ्य थी, उस समय तो प्रभु ! आपके दर्शन हुए नहीं। अब आखिरी घड़ियों में, जब शरीर जरा-जर्जर हो गया है, अशक्ति से घिर गया है, तब हम क्या कर सकते हैं ? इन शब्दों के पीछे उनकी अन्तर आत्मा की वेदनाएँ झलक रही थीं। उनके मन का परिताप उनको कचोट रहा था और शुद्ध स्वरूप की ओर प्रेरित कर रहा था। उनकी इस दयनीय स्थिति का उद्धार करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है "पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमर भवणाई, जेसिं पिओ तवो, संजयो य खन्ती य बंभचेरै च।" भगवान् ने उन्हें आत्मबोध कराया। तुम क्यों बिलखते हो ? जिसे तुम बुढ़ापा समझ रहे हो, वह तो तुम्हारे शरीर का आया है, न कि उसके अन्तर में जो प्रकाशमान आत्मा है उसको आया है ? तुम ५०-६० वर्ष की जिन्दगी गुजर जाने की बात करते हो, किन्तु मेरी दृष्टि में तो अनन्तानन्त काल की लम्बी झलक है, जो अनन्त अतीत में आज तक तुम नहीं कर सके, वह अब कर सकते हो। जो आत्मा का ज्ञान आज तक नहीं मिला, वह ज्ञान, वह प्रकाश आज मिला है। अपने आत्मस्वरूप का जागरण तुममें हुआ है। यह कोई साधारण बात नहीं है। जो आज तक नहीं हो सका, वह अब हो सकता है। आवश्यकता सिर्फ एक करवट बदलने की है, अंगड़ाई भरने की है। जब बन्धन को समझ लिया, उसकी अत्यन्त तुच्छ हस्ती को देख लिया, तो फिर तोड़ने में कोई विलम्ब नहीं हो सकता "बुज्झिज्जत्तित्तिउट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया।" बन्धन को समझो और तोड़ो ! तुम्हारी अनन्त शक्ति के समक्ष बन्धन की कोई हस्ती नहीं है। बस, भगवान् महावीर का यह एक ही उपदेश उनके लिए आलोक स्तम्भ बन गया और जीवन की अन्तिम घड़ियों में उन्होंने वह कर दिखाया, जो अनन्त जन्म लेकर भी नहीं कर सके थे। सारांश यह है कि बंधन का कर्ता आत्मा ही बंधन को तोड़ने वाली है। इसके लिए अपने स्वरूप को, अपनी शक्ति को जगाकर प्रयत्न करने की आवश्यकता है, बस, मुक्ति तैयार है और मुक्ति के प्राप्त करने पर 'आखर चार लाख चौरासी' योनियों में भटक कर बार-बार जन्म और मृत्यु के अपार-दुःख से छुटकारा प्राप्त हो जाता है। यह मुक्तावस्था कब आती है, यह तब आती है, जब प्राणी अपने अन्तर्देव की पहचान कर लेता है। अन्तर् देव की पहचान होते ही व्यक्ति स्वयं परमात्मा बन जाता है। परमात्मरूप प्राप्त करने पर स्वयं आत्मदेव बन जाता है और आत्मदेव की स्थिति पर पहुँच कर आत्मा सुख-दुःख, पाप-पुण्य इन समस्त बन्धनों से मुक्त सर्वज्ञ वीतराग पद को प्राप्त करने में सहज समर्थ होती है मुक्ति का यही प्रशस्त द्वार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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