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________________ ७२/ चिंतन की मनोभूमि सूर्य का तेज पुनः निखर जाता है और चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हँसता नजर आता है। घटाओं के बनने में समय लगता है, किन्तु बिखरने में अधिक समय नहीं लगता है। इसी प्रकार आत्मा को स्वरूप में आने के लिए अधिक समय की अपेक्षा नहीं रहती, उसमें कोई संघर्ष या कष्ट की अधिकता नहीं रहती। विलम्ब और संघर्ष तो पर-रूप की ओर जाने में होता है। उसमें पुरुषार्थ की अधिक आवश्यकता रहती है। भगवान् महावीर ने कहा है कि आत्मा का एक समयमात्र का शुद्ध ज्ञान रूप पुरुषार्थ कर्मों की अनन्तान्त वर्गणाओं के समूह को समाप्त कर डालता है। किसी गुफा में हजारों, लाखों वर्षों से संचित अंधकार की राशि को सूर्य की एक किरण और दीपक की एक ज्योति क्षणमात्र में नष्ट कर देती है। इसके लिए यह बात नहीं है कि अंधकार यदि लाखों वर्षों से संचित है, तो प्रकाश को भी समाप्त करने में उसी अनुपात से समय लगेगा। वह तो प्रथम क्षण में उसे विलीन कर देगा। यदि स्पष्ट शब्दों में कहा जाये, तो एक क्षण भी नहीं लगता। अपितु अंधकार का अंत और प्रकाश का उदय दोनों एक ही क्षण में होते हैं। वही अंधकार के नाश का क्षण है और वही प्रकाश के आविर्भाव का भी क्षण है। पाप बड़ा है या पुण्य ? ऊपर के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि रात्रि के सघन अन्धकार की शक्ति अधिक है या सूर्य की एक उज्ज्वल किरण की ? अवश्य ही सूर्य-किरण की शक्ति अधिक है। इसी प्रकार एक दूसरा प्रश्न है कि पाप बड़ा है या पुण्य बड़ा है ? रावण की शक्ति अधिक है या राम की शक्ति ? रावण की अतुल राक्षसी शक्तियों से लड़ने के लिए राम के पास केवल एक धनुष वाण था। रावण को अभिमान था कि उसके पास अपार राक्षसी विद्याएँ हैं, मायाएँ हैं, समुद्र का घेरा है और अन्य भी अनेक भौतिक शक्तियाँ उसके पंजे के नीचे दबी हुई हैं। जबकि राम के पास केवल कुछ बन्दर हैं और एक छोटा-सा धनुष वाण है। किन्तु क्या आप नहीं जानते कि उस छोटे से धनुष वाण ने रावण की समस्त मायावी शक्तियों को समाप्त कर डाला, समुद्र को भी बाँध लिया और अन्त में सोने की लंका के अधिपति रावण को भी मौत के घाट उतार डाला। इसलिए पाशविक शक्ति की अपेक्षा, मानवीय (आत्मिक) शक्ति हमेशा प्रबल होती है। भगवान् महावीर ने कहा है कि तुम कर्मों की प्रबल शक्ति को देखकर घबराते क्यों हो? भयभीत क्यों होते हो ? घबराये कि खत्म ! हिम्मत और साहस बटोर कर उनसे लड़ो। तुम्हारी आत्मा की अनन्त अपराजेय शक्तियाँ उन कर्मों को क्षणभर में नष्ट कर डालेंगी। . जैन इतिहास में ऐसे अनेक सम्राट् हो गए हैं जिनका जीवन भोग, विलास, हत्या, संग्राम आदि में ही व्यतीत हुआ। समुद्रों की छाती रौंद कर व्यापार करने वाले सेठ, हत्या और लूट करने वाले डाकू, जिनकी समूची जिन्दगी उन्हीं क्रूर कर्मों में व्यतीत हुई। परन्तु जब वे भगवान् के चरणों में आए, तो ऐसा कह कर पश्चात्ताप करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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