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बन्धन और मोक्ष ६९
पश्चात् जो भावना में विकृति आती है, राग-द्वेष का संचार होता है, वह आसक्ति एवं रागद्वेष का घेरा ही आत्मा को बन्धन में डालता है । उस घेरे में वह पदार्थ, जो कि राग-द्वेष के विकल्प का निमित्त बना, नहीं बँधता, किंतु विकल्प करने वाली आत्मा बँध जाती है । अन्य पदार्थ पर आत्मा का अधिकार कभी नहीं हो सकता। यदि इन पर आत्मा का अधिकार होता, तो वह किसी भी अभीष्ट पदार्थ को कभी नष्ट नहीं होने देती । और तो क्या, शरीर तक पर अधिकार नहीं है। बचपन के बाद जवानी आने पर मनुष्य सदा जवान ही रहना चाहता है, परन्तु संसार की कोई भी शक्ति इस दिशा में सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। शरीर के पर्याय प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इन पर किसी का कोई अधिकार नहीं चल सकता। आज अनेक औषधियाँ, वैज्ञानिक अनुसंधान, इसके लिए हो रहे हैं। बड़े-बड़े मस्तिष्क इस चेष्टा में सक्रिय हैं कि मनुष्य अपने शरीर पर मनचाहा अधिकार रख सके, किंतु आज तक भी यह संभव नहीं हो पाया है। जब अपने एकदम निकट के संगी-साथी बद्ध शरीर पर भी आत्मा का नियन्त्रण नहीं हो सकता, तो फिर धन, सम्पत्ति आदि अबद्ध नोकर्म की तो बात ही क्या है ? जब हमारे बिना चाहे भी आँख, कान, नाक और शरीर आदि के कणकण जवाब देना शुरू कर देते हैं, तो बाहरी पदार्थ हमारे अनुकूल किस प्रकार होंगे ? यह हमारे मन का विकल्प ही है, जो कि सबको अपना ही समझ रहा है, शरीर आदि पर पदार्थों के साथ मेरापन का सम्बन्ध जोड़ रहा है। किंतु वास्तव में वे आत्मा के कभी नहीं होते । शरीर तथा इन्द्रिय आदि परपदार्थ आत्मा का न कभी अहित कर सकते हैं और न कभी हित । यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि मेरी आँखें मुझे पतित कर रही हैं, तो यह बात ठीक नहीं है। आँखों में मानव का उत्थान और पतन करने की क्षमता है ही नहीं, यह क्षमता तो मानव की अपनी आत्मा में ही है। आँखें निमित्त बन सकती हैं, और कुछ नहीं ।
आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है कि आँखें जब हैं, तो वे रूप को ग्रहण करेंगी ही । अच्छा या बुरा जो भी दृश्य उनके सम्मुख आएगा, उसका रूप आँखें ग्रहण कर लेगीं । साधक बनने के लिए सूरदास बनना जरूरी नहीं है। किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि आँखों के सामने अच्छा या बुरा जो भी रूप आए, उसे वे ग्रहण तो भले ही करें, किन्तु उसके सम्बन्ध में राग-द्वेष का भाव न आए, मन में किसी प्रकार का दुर्विकल्प न हो, तो आँखों से कुछ देखने में कोई हानि नहीं है । इसी प्रकार कान हैं, तो जो भी स्वर या शब्द उसकी सीमा के अन्दर में होगा, उसे वह ग्रहण करेगा ही, सुनेगा ही । निन्दा और स्तुति, जय जयकार और भर्त्सना — दोनों ही ध्वनियाँ कान में अवश्य आएँगी, किन्तु उनके प्रति राग-द्वेष का विकल्प न उठना चाहिए। यदि वास्तव में साधक अपने को ऐसा बना लेता है, तो संसार का कोई भी पदार्थ उसे बन्धन में नहीं डाल सकता । बन्धन तो निज के विकल्पों के कारण होता है । यदि अन्दर के भावों में राग-द्वेष की चिकनाई नहीं रहती है, तो बाह्य पदार्थों के
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