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७० चिंतन की मनोभूमि रजकण उस पर चिपक नहीं सकते और न उस आत्मा को मलिन ही कर सकते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन का यह निश्चित मत है कि बन्धन का कारण एकमात्र भाव ही है, द्रव्य नहीं। मुक्ति का दाता कौन ?
ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब बन्धन का कारण भाव है, तो मुक्ति का कारण भी कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब बेचारे शरीर और इन्द्रियाँ बन्धन में नहीं डाल सकते, तो मुक्ति कैसे दिला सकते हैं ? शरीर में यह शक्ति है ही नहीं, भले ही वह तीर्थंकर का वज्र ऋषभ नाराज संहनन वाला शरीर ही क्यों न हो। समस्त विश्व में ऐसी कोई भी बाहरी शक्ति नहीं है, जो किसी आत्मा को बन्धन में डाल दे या उसे मुक्ति दिला दे। जैन एवं वेदान्त जैसे महान् भारतीय दर्शन एक स्वर से यही कहते हैं कि हे आत्मन ! तेरी मुक्ति तेरे ही हाथ में है, तु ही बन्धन करने वाला है और तू ही अपने को मुक्त करने वाला भी है।
"स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते॥" यह आत्मा स्वयं ही कर्म करती है और स्वयं ही उसे भोगती है। अपने स्वयं के कर्मों के कारण ही संसार में भ्रमण करती है और स्वयं ही कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष में विराजमान हो जाती है। इसलिए हमें मुक्ति के लिए कहीं बाहर भटकने की जरूरत नहीं है, वह इसी आत्मा में है, आत्मा ही मुक्ति का दाता है। आत्मा ही मित्र है:
जब जब आत्मा बाहर झाँकती है और जब जब सुख, दुख, शत्रु और मित्र को बाहर में देखने का विकल्प करती है, तभी आत्मा उन विकल्पों में उलझकर अपने आप को बन्धनों में फंसा लेती है। वास्तव में जब तक आत्मा का दृष्टिकोण बहिर्मुखी रहता है, तब तक उसके लिए बन्धन ही बन्धन है। जब वह बाहर में किसी मित्र को खोजेगी, तो एक मित्र के साथ अनेक शत्रु भी मिल जाएँगे। किन्तु जब अन्तर्मुखी होकर अपनी आत्मा को ही मित्र की दृष्टि से देखेगी, तो न कोई मित्र होगा और न कोई शत्रु ही होगा। संसार के सभी बाह्य शत्रु और मित्र नकली प्रतीत होंगे। भगवान् महावीर ने भी कहा है
"पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं,
किं बहिया मित्त मिच्छसि?" मानव! तू ही तेरा मित्र है, बाहर के मित्रों को क्यों खोजता हैं ? जब आत्मा अपने स्वरूप में, ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपयोग में रहती है, तो वह अपना परम मित्र
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