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६८ चिंतन की मनोभूमि
अबद्ध नोकर्म वे कर्म हैं, जो बद्ध नहीं हैं। शरीर की तरह वे प्रत्येक समय आत्मा के साथ सम्पृक्त नहीं रहते। उनका कोई भी निश्चय नहीं होता कि कहाँ साथ रहें, कहाँ नहीं; जैसे कि धन, मकान, परिवार आदि का सदा साथ रहना संदिग्ध है। ये सब आत्मा में दूध और पानी की तरह एकमेव संपृक्त होकर नहीं रहते, अपितु पृथग्भाव से रहते हैं, अत: इन्हें अबद्ध नोकर्म कहा जाता है ।
शरीर बन्धन नहीं है :
एक प्रश्न यह उठता है कि अबद्ध नोकर्म आत्मा को नहीं बाँधते हैं, तो क्या बद्ध नोकर्म ( शरीर आदि) आत्मा को बाँधते हैं ? आखिर आत्मा किसके बन्धन में बँधी है ? इसका उत्तर होगा कि शरीर तो जड़ है। यदि इस शरीर ने आत्मा को बाँधा है, तो यह कहना होगा कि गीदड़ की ठोकरों से शेर लुढ़क गया है। जो शेर समूचे जंगल पर अपना प्रभुत्व जमाए रखता है, वह गीदड़ की हुँकार के सामने पराजित हो गया है । जिस प्रकार अबद्ध नोकर्म में आत्मा को बाँधने की शक्ति नहीं है, उसी प्रकार इस बद्ध नोकर्म रूप शरीर में भी आत्मा को बाँधने की शक्ति एवं सामर्थ्य नहीं है । आत्मा, जो अनन्त पौरुषशाली तत्त्व है, वह इनके चंगुल में कभी नहीं फँस सकती ।
इस पर फिर यह प्रश्न उठता है कि यदि शरीर आत्मा को नहीं बाँधता तो, फिर आत्मा को कौन बाँधता है ? क्या इन्द्रियाँ आत्मा को बाँधती हैं ? ये कान, ये आँखें, ये जिह्वा-क्या आत्मा इन सबके बंधन में बँधती है ? शरीर और इन्द्रियों आदि में यह शक्ति नहीं है कि वे अनन्त बलशाली आत्मा को बाँध लें। यदि इनमें यह शक्ति होती तो भगवान् महावीर को भी बाँध लेते। किसी को मुक्त होने ही नहीं देते । यह शरीर, ये इन्द्रियाँ, यह धरती, यह आकाश तथा नोकर्म के फल भोगने के रूप में और भी कितने ही पदार्थ उनके पास रहे, फिर भी इन सभी ने भगवान् महावीर को क्यों नहीं बाँध लिया ?
बन्धन भाव में है :
जहाँ तक बंधन का प्रश्न है, यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि बन्धन न तो शरीर में है, न इन्द्रियों में है, और न बाहर के किसी द्रव्य में ही है । वे सब जड़ हैं । बन्धन और मोक्ष देने की क्षमता जड़ में कभी नहीं हो सकती । बन्धन तो आत्मा के अपने ही विचार में है, भाव में है । जहाँ तक द्रव्य, द्रव्य है वहाँ तक बन्धन नहीं है, परन्तु ज्योंही द्रव्य, भाव की पकड़ में आया नहीं कि बन्धन हो गया । भाव से ही बन्धन होता है, भाव से ही मुक्ति । इसलिए यह ठीक कहा गया है कि
'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः ।"
मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है । बन्धन शरीर से नहीं होता बल्कि शरीर के निमित्त से मन में जो विकल्प होते हैं, जो राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, उन विकल्पों और परिणामों के कारण बन्धन होता है। इसी प्रकार इन्द्रियाँ भी बन्धन नहीं हैं, किंतु इन्द्रियों के द्वारा जो रूपादि का बोध और जानकारी होती है, और उसके
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