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________________ 23-870888 बन्धन और मोक्ष - __यह आत्मा अनन्तकाल से बन्धन में बँधी चली आ रही है। बन्धन भी एक नहीं, बल्कि अनन्तानन्त बन्धन आत्मा पर लगे हुए हैं। ऐसी बात भी नहीं है कि आत्मा उन बन्धनों को पुरुषार्थहीन बनकर चुपचाप सहती आई है, बल्कि वह उन्हें तोड़ने के प्रयत्न सदा-सर्वदा करती रही है। भले ही भोग कर ही क्यों न तोड़ी हो, पर तोड़ी जरूर है। इस प्रकार यह आत्मा बन्धन और मोक्ष के बीच से गुजरती रही विचारणीय प्रश्न यह है कि ये बन्धन आत्मा में कहाँ से आए हैं ? ये शरीर, ये परिवार और ये ऐश्वर्य आदि कहाँ से जुटाए गए हैं ? क्या इन्हीं बाहरी पदार्थों ने आत्मा को बाँध रखा है ? या अन्दर के काम-क्रोध आदि ने उसके गले में फंदा डाल रखा है ? इन दोनों-बाहरी और भीतरी बन्धनों के स्वरूप को समझे बिना 'आत्मा के बन्धन क्या हैं ?' इस प्रश्न का उत्तर ठीक तरह नहीं समझा जा सकता। और जब तक बन्धन का स्वरूप नहीं समझा जाता, तब तक मोक्ष का स्वरूप भी नहीं समझा जा सकता। जैसा कि कहा गया है.'बुझिज्जित्ति उहिज्जा बन्धनं परिजाणिया'बन्धन का स्वरूप समझने के बाद ही उसे तोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है।' बन्धन क्या हैं ? बन्धन का स्वरूप समझने के लिए हमें मूल कर्म और उसकी उत्तरकालीन परिणति को समझना होगा। कर्म के दो रूप हैं-एक कर्म, दूसरा नोकर्म। पहला कर्म है, दूसरा वास्तव में तो कर्म नहीं है किंतु कर्म जैसा ही लगता है, इसलिए साधारण भाषा में उसको नोकर्म कह दिया जाता है। शरीर, परिवार, धन, सम्पत्ति आदि सब नोकर्म हैं। नोकर्म भी दो प्रकार के होते हैं—एक बद्ध नोकर्म दूसरा अबद्ध नोकर्म। बद्ध का अर्थ है बँधा हुआ और अबद्ध का अर्थ है नहीं बँधा हुआ। संसार दशा में जहाँ शरीर है, वहाँ आत्मा है: और जहाँ आत्मा है वहाँ शरीर है। दोनों दूध और पानी की तरह परस्पर मिले हुए हैं, एक-दूसरे से बँधे हुए हैं। इसलिए शरीर आत्मा से बँधा हुआ होने के कारण बद्ध नोकर्म है। यद्यपि दोनों का स्वरूप अलग-अलग है, सत्ता अलग-अलग है, किन्तु अनन्तानन्त काल से शरीर में आत्मा का निवास रहा है, एक शरीर छोड़ा तो दूसरा मिल गया, दूसरा छोड़ा तो तीसरा मिल गया। एक शरीर को छोडकर दूसरे शरीर की ओर जाते समय, मध्य के समय में भी, जिसे विग्रह गति कहते हैं, तैजस और कर्माण शरीर साथ रहते हैं। संसारी आत्मा के ऐसा एक भी क्षण नहीं है, जबकि वह बिना किसी भी प्रकार शरीर के संसार में रही हो। इस प्रकार शरीर आत्मा के साथ बद्ध है, अतः शास्त्रकारों ने उसे बद्ध नोकर्म कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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