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__कविजी क्या थे ? इस विधेयात्मक प्रश्न की अपेक्षा, कविजी क्या नहीं थे ? यह निषेधात्मक प्रश्न ही वास्तविक रूप में अधिक यथार्थवादी है। क्योंकि उनका अपना झुकाव-आदर्शवाद की अपेक्षा यथार्थवाद में ही अधिक सन्तोष पाता था। __ जीवन की सुषमापूर्ण अरुण बेला से जीवन के तप्यमान प्रखर मध्याह्न तक और जीवन की अंतिम संध्या के प्रारम्भ तक कविजी के जीवन की एक ही विशेषता रहीसमन्वयवादी दृष्टिकोण। नूतन में पुरातन का और पुरातन में नूतन का समावतार उन्होंने सफलता के साथ किया था। नूतन और पुरातन के इस सन्धि-देवता को विनीत नमन के साथ कोटि-कोटि वन्दन। जीवन-परिचय:
वसुन्धरा मानव का निवास स्थान है। परन्तु उसमें भारत मानवता का परम पावन निधान रहा है। संसार में जब कभी अन्धकार का प्रसार हुआ, अन्ध-रूढ़ियों तथा अनीतियों का बोलबाला हुआ, उसी बीच तमिस्रा के पट विच्छिन्न करके प्राची में उदय होने वाले अरुणोदय के समान किसी न किसी महापुरुष ने मानव रूप में अपने प्रखर आलोक से जन-मानस को आलोकित किया। महान् विभूतियों के इसी क्रम में श्रद्धेय राष्ट्र-सन्त उपाध्याय अमरमुनि जी का आविर्भाव इस भारत भूमि पर वि. सं. १९६० तद्नुसार ई. सन् १९०३ में हुआ था। आपके पिता श्री लालसिंहजी एक धार्मिक वृत्ति के सन्त सेवक पुरुष थे, माता श्रीमती चमेली देवी जी धर्ममूर्ति आपकी जननी थीं। धर्मपरायण दम्पत्ति से इस रत्नदीप अमरसिंह का पावन अर्घ्य पाकर हरियाणा राज्य में नारनौल धन्य-धन्य हो उठा। पन्द्रह वर्ष की अपरिपक्व अवस्था में ही, जबकि आज के किशोर खाने-खेलने में ही लगे रहते हैं, बालक अमर ने अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर परम् पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज की छत्र-छाया में आकर वि. सं. १९७६ माघ शुक्ल दशमी को भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की। तब कौन जानता था, कि यह भोले स्वभाव का निश्छल बालक एक दिन अपनी प्रज्ञा और मेधा के बल पर विशाल श्रमण-संघ में एक अपार विचार-क्रान्ति उपस्थित कर सकेगा। नियति का विधान बड़ा विचित्र है, कब, कहाँ, कौन-सी और कैसी ज्योति प्रकट होगी, कौन जाने! एक महान् समन्वयकार: __कविश्रीजी का सम्पूर्ण जीवन नाना सम्प्रदायों, ज्ञान की नाना विधाओं तथा तत्त्वचिन्तन की विविध-धाराओं का एक इस प्रकार का समन्वित रूप था, कि वह स्वतः समन्वय का संस्थापक बिम्ब बन गया। समन्वय, प्राचीन एवं अर्वाचीन विचारों का, धर्म और नीति का, लोकरीति और यथार्थ का, अध्यात्म और राजनीति का, तत्त्व-चिन्तन और परम्परा का, साहित्य एवं संस्कृति का और सबसे बड़ी बात है, कि मनुष्यत्व एवं देवत्व के समन्वय का मणि-कांचन संयोग कविश्री के परिचय के प्रथम क्षण में ही अपनी दिव्य आभा से परिष्कृत कर मन्त्र मुग्ध-सा कर देता था। इस समन्वय वृत्ति का ही परिणाम था, कि राष्ट्र-सन्त उपाध्याय अमरमुनिजी स्वयं जैन-परम्परा से अनुगत एवं अनुप्राणित होकर
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