________________
जीवन : व्यक्तित्व : कृतित्व
मनुज की जगती पर मनुज के जीवन के सत्य संकल्पों को साकार करने में जिसने अपनी समग्र शक्ति का आधान किया तथा जीवन की संध्या के अन्तिम क्षणों तक करते रहने का जिसने सत्य व्रत स्वीकार किया था, उस अमर की-अमरत्व की 'अमर-ज्योति' को प्रकाशमय मस्तिष्क में, आलोकमयी वाणी से और ज्योतिर्मय जीवन से, जन-जन के जीवन के, जीवन-देवता के चरण-कमलों में कोटि-कोटि वन्दना के साथ अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ।
समाज ने जिसको संस्कृति का संस्कार करने के कारण संस्कारक माना है। धर्म ने जिसमें 'स्व' और 'पर' को धारण करने की शक्ति देखकर धार्मिक कहने में अपना स्वयं का गौरव स्वीकार किया है। दर्शन ने, जिसमें साक्षात्कार करने का संकल्प पाकर दार्शनिक होने की सहज-शक्ति को पाया। काव्य ने, जिसमें कल्पना, प्रतिभा और नि:सर्ग भावुकता देखकर कवि पद से विभूषित किया। जो कुछ पाना है, अन्दर में अन्दर से ही पाना है, पाना भी क्या है, जो कुछ अन्तर में—सत्यं, शिवं, सुन्दरं युग-युग से है, उसी को प्रकट करना है। दिवंगत कविजी की यही संस्कृति थी, यही धर्म था, यही दर्शन था और यही कवि का काव्य था। संस्कृति, धर्म, दर्शन और कविकर्म-कविजी इन चार युगों के एक साथ युगावतार थे—युगान्तरकारी थे।।
- ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र-भारतीय-संस्कृति की यह त्रि-मूर्ति-उसकी पावनता की प्रतीक रही है। ब्रह्मा उत्पादक, विष्णु पालक और रुद्र संहारक। कविजी में इन तीनों का समावेश अथवा प्रवेश एक काल में, एक साथ ही सम्पन्न हो चुका था, क्योंकि समाज और राष्ट्र के धरातल पर उन्होंने उत्पादन किया था-नूतन-चिन्तन की सृष्टि का, पालन किया था-धर्म की मर्यादा का, संस्कृति की सीमा का और दर्शन की व्यापकता का, विध्वंसन किया था--जड़ात्मक रूढ़िवाद का एवं अन्ध-विश्वासों की परम्परा का। जीवन के इस परिप्रेक्ष्य में कविजी ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सभी कुछ थे। ।
कविजी में उपयोगी तत्त्व का ग्रहण था, अनुपयोगी तत्त्व का त्याग था और साथ ही जीवन्त-जीवन का ध्रौव्य भी—यह अनेकान्तमयी मूर्ति अपने जीवन के ८९ वसन्तों को पार करके १, जून , १९९२ को परमात्मा की पावन ज्योति में विलीन हो गई। उनके लक्षलक्ष अनुयायियों को उनकी अमृत-वाणी का आशीर्वाद सदा मिलता रहेगा। * श्रमण-संघ के उपाध्याय, कविरत्न, श्रद्धेय अमरचन्द्रजी महाराज एक व्यक्ति होकर भी विश्वात्मा थे। उनकी कल्पना थी, कि भारत को विश्वभारती बनाना है, और अन्त में प्रत्येक व्यक्ति को भी विश्वात्मा बनने की ओर बढ़ाना है, समाज और राष्ट्र को कविजी का यही उपदेश प्रदेय रहा। कालवा -याने चालकको
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org