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________________ भी वैदिक और बौद्ध परम्पराओं का उनके चिन्तन में सुन्दर समन्वय का प्रतिभास स्पष्ट नजर आता था। उनके द्वारा सूक्ति-त्रिवेणी जैसे महान् ग्रन्थ का सम्पादन उनकी इसी समन्वय वृत्ति को अनुगुंजित कर रहा है। महाश्रमण भगवान् महावीर के अनेकान्तवाद तथा महाकरुणाशील बुद्ध के विभज्यवाद के जीवन्त बिम्ब को यदि आप देखना चाहते हैं, तो आप इस महान् द्विव्य-आत्मा के दिये हुए उपदेशों का अध्ययन करें, जिसकी प्रखर प्रतिभा की उज्ज्वल किरणों से वर्तमान समग्र भारतीय समाज पूर्णतः आप्यायित है। कविजी के गम्भीर चिन्तन को ध्यान में रखते हुए एक बार डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा था"उपाध्याय कविरत्न अमरमुनिजी वर्तमान जैन समाज के दार्शनिक क्षेत्र में व्यक्ति नहीं, एक संस्था हैं। वे अपने चारों ओर ज्ञान की आभा का सम्पूरित वातावरण प्रसारित करते हुए विद्यमान हैं।" महान् प्रज्ञा-पुरुषः कविश्रीजी के अन्तक्तित्व से बुद्ध का करुणावाद, गाँधी का मानवतावाद, विवेकानन्द का कर्मवाद और गीता का सांख्यवाद तथा स्थितप्रज्ञवाद—एक साथ समन्वित रूप में तदाकार हो उठा है। अगर जैन-दर्शन का अप्रतिहत, अविच्छिन्न व्यक्तित्व उपाध्यायश्रीजी थे, तो आश्चर्य क्या ? यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेने जैसी है, कि महान् पुरुष किसी भी पन्थ एवं सम्प्रदाय की सीमा में आबद्ध नहीं होता उसकी कोई सीमा रेखा नहीं होती। कविश्रीजी का महामहिम व्यक्तित्व वस्तुतः जागतिक सीमाओं की क्षुद्र वीथियों के पार अनन्त सागर तट का अवलोकन है। अध्यात्म-चिन्तन का इनका-सा सौम्य रूप अन्यत्र स्वल्प ही मिलता है। उपाध्याय कविरत्न अमरमुनिजी अपने युग के एक प्रज्ञा पुरुष थे, जिन्होंने अपनी प्रज्ञा के आलोक से, अपने जीवन के अरुणोदय से लेकर जीवन की इस स्वर्णिम संध्या तक अन्धविश्वास की तमिस्रा को दूर करने का ही नहीं, सर्वथा क्षीण करने का भी सफल प्रयास किया था। इन्होंने अपने जीवन के सुखद एवं दुःखद क्षणों में कभी भी अन्धविश्वास से समझौता नहीं किया। इनके अन्धविश्वास प्रभंजक तर्कों की करारी चोट से इनके विरोधी ही नहीं, इनके अनुयायी भी आहत होकर तिलमिला उठते थे। उपाध्यायश्रीजी का यह संकल्प और साहस ही कहा जा सकता है, कि उन्होंने अपनी पूजा-प्रतिष्ठा खोकर भी अन्ध-विश्वास से समझौता करने का कभी प्रयास नहीं किया। प्रवचन हो अथवा लेखन हो, वाणी हो या कलम हो, जब वे बोलना और लिखना प्रारम्भ करते थे, और सत्य की खोज में गहरी डुबकी लगा लेते थे, तब वे सत्य-शोधक बनकर, जो कुछ और जैसा कुछ है, उसे प्रकट करने में लेशमात्र भी छुपावट अपने आस-पास नहीं रखते थे। सत्य के अनुसन्धान में चोट कहीं पर भी लगे अपनों पर या परायों पर, पर सत्य प्रकट करना ही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय रहा। इसके लिए वे रूढ़िवादियों की कटु आलोचना के लक्ष्य भी यदा-कदा बनते रहे, परन्तु उन्होंने कभी बचने का या समझौता करने का प्रयास नहीं किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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