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एक महान् कर्म-योगी:
भारतीय-दर्शन में कर्मयोगी उसे कहा जाता है, जो मात्र वाग्जाल में ही उलझकर नहीं रह जाता, तथा मात्र गम्भीर चिन्तन तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि जिस सत्य को समझा है और परखा है, उसे अपने जीवन में उतार कर भी दिखा देना, यही है कर्मयोगी की व्याख्या। उपाध्यायश्रीजी का जीवन किसी न किसी कर्म में सदा व्यस्त रहता था। कभी भी वे निष्क्रिय होकर नहीं बैठे। कभी लिखना, कभी बोलना, कभी अध्ययन, कभी परिसंवाद और कभी अपने जीवन की आवश्यक क्रियाओं को वे बड़े ही आनन्द से अपने हाथों से सम्पन्न करके बड़े ही प्रसन्न होते थे। स्वयं प्रतिक्षण कर्मशील रहकर अपने आस-पास के लोगों को भी वे कर्मशील बनने का उपदेश देते रहते थे। कविजी अनेक बार अपने प्रवचनों में कहा करते थे-"माँगना जीवन की कला नहीं, वह तो मात्र कायरता है। कला तो विष को अमृत बना देने में है।" अपूर्व है, उनका यह कथन । उनका यह विश्वास था, कि मानव अपनी ज्येष्ठता एवं श्रेष्ठता तथा उच्चता को अपने कर्तव्यों के सही आकलन द्वारा प्राप्त कर सकता है। अपने एक अन्य लेख में उन्होंने कहा था-"जिस प्रकार धरती पर सागर बह रहे हैं, पर्वत की कठोर चट्टान के नीचे मधुर जल के झरने झरते हैं, उसी प्रकार दरिद्री एवं दुःखी मन के नीचे मानवता का अपार स्रोत प्रवाहित है, तथा सुख और सम्पदा का अक्षय कोष छिपा पड़ा है। अपने कर्मशील जीवन के कर्त्तव्य-पथ पर बढ़कर मनुष्य सब कुछ पा सकता है। किसी के कुछ देने से मनुष्य के जीवन में कभी सम्पन्नता नहीं आ सकती, उसे जो कुछ पाना है, अपने कर्त्तव्य से ही पाना होगा। निष्काम भाव से किया गया मनुष्य का कर्म कभी व्यर्थ नहीं होता। कर्मयोग के सम्बन्ध में यही था, कविजी का क्रान्तदर्शन और क्रान्त वाणी। कविश्रीजी देने-लेने की भाषा में विश्वास नहीं करते थे, उनका विश्वास-श्रम करके स्वयं के पाने में था। कर्मशील व्यक्ति वही है, जिसे अपने श्रम पर पूरा-पूरा विश्वास हो, तथा जिसके हृदय में अगाध आस्था हो, कि जो कुछ मुझे पाना है, स्वयं अपने द्वारा ही पाना है, किसी की अनुकम्पा के भार को मैं वहन नहीं कर सकता। दूसरा यदि मुझे कुछ दे भी दे और उसके संरक्षण की योग्यता मुझ में न हो, तो दी हुई वस्तु भी मेरी अपनी नहीं रह सकेगी। कविश्रीजी के इन विचारों से भली-भाँति समझा जा सकता है, कि वे अपने युग के मात्र प्रज्ञा पुरुष ही नहीं थे, साथ ही अपने युग के एक महान् कर्मयोगी तथा महान् आराधक भी थे। कविजी की साहित्य-साधनाः ।
कविरत्न, राष्ट्रसन्त, उपाध्याय श्री अमरचन्द्रजी महाराज का सर्व सामान्य जन में संक्षिप्त नामकरण था-कविजी। आप भारत की किसी भी दिशा में जाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण भारत के किसी भी प्रान्त में चले जाएँ और इस महान् व्यक्तित्व के जीवन के सम्बन्ध में किसी प्रकार की चर्चा प्रारम्भ कर दें, उस परिचर्चा में उलझने वाले लोग कविजी-कविजी की ध्वनि से वातावरण को अनुरणित कर देंगे। उनके द्वारा लिखा गया साहित्य हो अथवा उनके प्रवचन हों, उनके कवि जीवन की छाप आपको सर्वत्र दिखाई
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