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________________ जीव और कर्म का सम्बन्ध ६५ प्रदेश। इनमें से प्रकृति और प्रदेश का बन्ध योग से होता है तथा स्थिति और अनुभाग का बन्ध कषाय से होता है। जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही प्रवृत्ति से अपने बनाए हुए जाले में फँस जाती है, उसी प्रकार यह जीव भी अपनी राग-द्वेष रूपी प्रवृत्ति से अपने आपको कर्म पुद्गल के जाल में फँसा लेता है। कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगा कर यदि धूलि में लेटे तो धूलि उस शरीर में चिपक जाती है। तो, जिस प्रकार से धूलि उसके शरीर में चिपक जाती है, ठीक इसी प्रकार आत्मा के रागद्वेष रूप परिणामों से जीव भी पुद्गलों को ग्रहण करता है और कषाय भाव के कारण उन कर्म-दलिकों का आत्म-प्रदोषों के साथ संलेष हो जाता है और वस्तुतः यही बन्ध है। जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में माया, अविद्या, अज्ञान और वासना को कर्म बन्ध का कारण माना गया है, परन्तु शब्द-भेद और प्रक्रिया-भेद होने पर भी मूल भावनाओं में अधिक मौलिक भेद नहीं है। न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में मिथ्या . ज्ञान को, योग दर्शन में प्रकृति और पुरुष के संयोग को, वेदान्त में अविद्या एवं अज्ञान को तथा बौद्ध दर्शन में वासना को कर्म-बन्ध का कारण माना गया है। कर्म बन्ध से मुक्ति के साधन : भारतीय दर्शन में जिस प्रकार कर्म-बन्ध और कर्म-बन्ध के कारण माने गए हैं, उसी प्रकार कर्म बंध से मुक्ति प्राप्ति के साधन भी बताए गए हैं। मुक्ति, मोक्ष और निर्वाण प्रायः समान अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। बन्धन से विपरीत दशा को ही मुक्ति एवं मोक्ष कहा जाता है। यह ठीक है, कि जीव के साथ कर्म का प्रतिक्षण बन्ध होता है। पुरातन कर्म अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं और नये कर्म प्रतिक्षण बँधते रहते हैं। परन्तु इसका फलितार्थ यह नहीं निकाल लेना चाहिए कि आत्मा कभी कर्मों से मुक्त होगी ही नहीं। जैसे स्वर्ण और मिट्टी परस्पर मिलकर एकमेव हो जाते हैं, किन्तु ताप आदि की प्रक्रिया के द्वारा जिस प्रकार मिट्टी को अलग करके शुद्ध स्वर्ण को अलग कर लिया जाता है, उसी प्रकार आध्यात्म-साधना से कर्म-फल से छूट कर शुद्ध, बद्ध एवं मुक्त हो सकता है। यदि आत्मा एक बार कर्म विमुक्त हो जाती है, तो फिर कभी वह कर्म-बद्ध नहीं होती। क्योंकि कर्म-बन्ध के कारणीभूत साधनों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैसे बीज के सर्वथा जल जाने पर उससे फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही कर्मरूपी बीज के जल जाने पर उससे संसार-रूप अंकुर उत्पन्न नहीं हो पाता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है, कि जो आत्मा एक दिन बद्ध हो सकती है, वह आत्मा एक दिन कर्मों से विमुक्त भी हो सकती हैं। प्रश्न होता है कि कर्म-बन्ध से छूटने के उपाय क्या हैं, ? उक्त प्रश्न के समाधान में जैन-दर्शन मोक्ष एवं मुक्ति के तीन साधन एवं उपाय बतलाता हैसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। कहीं पर यह भी कहा गया है कि 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् ज्ञान और क्रिया से मोक्ष की उपलब्धि होती है। ज्ञान और क्रिया को मोक्ष का हेतु मानने का यह अर्थ नहीं है कि यहाँ सम्यग्दर्शन को मानने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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