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६४ चिंतन की मनोभूमि
एवं मलमूत्र आदि सार- असार विविध रूपों में परिणत होता रहता है। इसी प्रकार कर्म भी जीव से ग्रहण किए जाने पर शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत होते रहते हैं । एक ही पुद्गल वर्गणा में विभिन्नता का हो जाना, सिद्धान्त - बाधित नहीं कहा जा सकता है।
जीव का कर्म से अनादि सम्बन्ध :
आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है, फिर यहाँ प्रश्न उठता है कि इस चेतन आत्मा का इस जड़ कर्म के साथ सम्बन्ध कब से है ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि-कर्म-सन्तति का आत्मा के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध है । यह नहीं बताया जा सकता, कि जीव में कर्म का सर्वप्रथम सम्बन्ध कब और कैसे हुआ ? शास्त्र में यह कहा गया है कि जीव सदा क्रियाशील रहता है। वह प्रतिक्षण मन, वचन और काय से एकबद्ध हो व्यापार में प्रवृत्त रहता है। अतः वह हर समय कर्म बन्ध करता ही रहता है। इस प्रकार अमुक कर्म विशेष दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध सादि ही कहा जा सकता है । परन्तु कर्म सन्तति की अपेक्षा से जीव के साथ कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध है । प्रतिक्षण पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बँधते रहते हैं ।
यदि कर्म सन्तति को सादि मान लिया जाए, तो फिर क्या जीव कर्म सम्बन्ध से पूर्व सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त दशा में रहा होगा ? फिर वह कर्म से लिप्त कैसे हो गया ? यदि अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित जीव कर्म से लिप्त हो सकता है तो सिद्ध आत्मा भी कर्म से लिप्त क्यों नहीं हो जाती ? इस प्रकार संसार और मोक्ष का कोई महत्त्व न रहेगा, कोई व्यवस्था न रहेगी। इसके अतिरिक्त कर्म सन्तति को सादि मानने वालों को यह भी बताना होगा कि कब से कर्म आत्मा के साथ लगे और क्यों लगे ? इस प्रकार, किसी प्रकार का समाधान नहीं किया जा सकता। इन सब तर्कों से यही तथ्य सिद्ध होता है कि आत्मा के साथ कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध रहा है।
कर्म बन्ध के कारण :
यदि यह मान लिया जाए कि जीव के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध है, परन्तु फिर इस तथ्य को स्वीकार करने पर यह प्रश्न सामने आता है कि यह बन्ध किन कारणों से होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कर्म-ग्रन्थों में दो अभिमत उपलब्ध होते हैं - पहला, कर्म-बन्ध के कारण पाँच मानता है— जैसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। दूसरा, कर्म-बन्ध के कारण केवल दो ही मानता है— कषाय और योग । यहाँ पर यह समझ लेना चाहिए कि कषाय में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद अन्तर्भूत हो जाते हैं । अतः संक्षेप की दृष्टि से कर्म-बन्ध के हेतु दो और विस्तार की अपेक्षा से कर्म-बन्ध के हेतु पाँच हैं। दोनों अभिमतों में कोई मौलिक भेद नहीं है।
कर्म-ग्रन्थों में बन्ध के चार भेद बताए गए हैं - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और
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