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जीव और कर्म का सम्बन्ध ६३ मानता कि जड़ कर्म चेतन के संसर्ग बिना भी फल देने में समर्थ है। कर्म स्वयं ही अपना फल प्रदान करने का सामर्थ्य रखता है । प्राणी जैसा भी कर्म करते हैं, उनका फल उन्हें उन्हीं कर्मों द्वारा स्वतः मिल जाता है। जिस प्रकार जीभ पर मिर्च रखने के बाद उसकी तिक्तता का अनुभव स्वतः होता है, व्यक्ति के न चाहने से मिर्च का स्वाद नहीं आए, यह नहीं हो सकता । उस मिर्च के तीखेपन का अनुभव कराने के लिए किसी अन्य चेतन आत्मा की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यही बात कर्म-फल भोगने के विषय में भी समझ लेनी चाहिए । कर्म :
शुभ
और अशुभ
जैन-दर्शन के अनुसार कर्म वर्गणा के पुद्गल - परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं उनमें शुभत्व और अशुभत्व का भेद नहीं है, फिर कर्म पुद्गल परमाणुओं में शुभत्व एवं अशुभत्व का भेद कैसे पैदा हो जाता है ? इसका उत्तर यह है कि-जीव अपने शुभ और अशुभ परिणामों के अनुसार कर्म वर्गणा के दलिकों को शुभ एवं अशुभ में परिणत स्वरूप को ही ग्रहण करता है । इस प्रकार जीव के परिणाम एवं विचार ही, कर्मों की शुभता एवं अशुभता के कारण हैं । इसका अर्थ यह है कि कर्म-पुद्गल स्वयं अपने आप में शुभ और अशुभ नहीं होता, बल्कि जीव का परिणाम ही उसे शुभ एवं अशुभ बनाता है। दूसरा कारण है, आश्रय का स्वभाव । कर्म आश्रय भूत संसारी जीव का भी यह वैभाविक स्वभाव है कि वह कर्मों को शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत करके ही ग्रहण करता है। इसी प्रकार कर्मों में भी कुछ ऐसी योग्यता रहती है कि वे शुभ एवं अशुभ परिणाम सहित जीव द्वारा ग्रहण किए जाकर ही, शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत होते रहते हैं, बदलते रहते हैं एवं परिवर्तित होते रहते हैं । पुद्गल शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में परिणति का क्रम सदा चलता रहता है।
प्रकृति, स्थिति और अनुभाग की विचित्रता तथा प्रदेशों के अल्प- बहुत्व का भी भेद जीव कर्म ग्रहण के समय ही करता है । इस तथ्य को समझने के लिए आहार के एक दृष्टान्त से समझा जा सकता है। सर्प और गाय को प्राय: एक जैसा ही भोजन एवं आहार दिया जाए, किन्तु उन दोनों की परिणति विभिन्न प्रकार की होती है। कल्पना कीजिए, सर्प और गाय को एक साथ और एक जैसा दूध पीने के लिए दिया गया, वह दूध सर्प के शरीर में विष रूप में परिणत हो जाता है और गाय के शरीर में दूध, दूध रूप में ही परिणत होता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न का समाधान स्वतः स्पष्ट है कि आहार का यह स्वभाव है कि वह अपने आश्रय के अनुसार ही परिणत होता है । एक ही समय पड़ी वर्षा की बूँदों, का आश्रय के भेद से, भिन्न-भिन्न परिणाम देखा जाता है। जैसे कि स्वाति नक्षत्र में गिरी बूँदें सीप के मुख में जाकर मोती बन जाती हैं। और सर्प के मुख में विष । यह तो हुई भिन्न-भिन्न शरीरों में आहार की विचित्रता की बात, किन्तु, एक शरीर में भी एक जैसे आहार के द्वारा प्राप्त भिन्न-भिन्न परिणामों की विचित्रता देखी जा सकती है। शरीर द्वारा ग्रहण किया हुआ एक आहार अस्थि मज्जा
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