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६० चिंतन की मनोभूमि दूषित मनोवृत्ति को बढ़ावा देती है। मनुष्य को कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं, अपितु खुशामदी बनाती है।
___ यही बात प्रलोभन के सम्बन्ध में है। मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न्यायोचित प्रयत्न करना चाहिए। जो पाना है, उसके लिए अपने पुरुषार्थ का भरोसा रखना चाहिए। परन्तु ईश्वरवाद मनुष्य को इसके विपरीत आलसी, निष्कर्मण्य एवं भिखारी बनाता है। वह हर आवश्यकता के लिए ईश्वर से भीख माँगने लगता है। वह समझता है, यदि ईश्वर प्रसन्न हो जाए, तो बस कुछ का कुछ हो सकता है। ईश्वर के बिना मेरी भाग्य लिपि को कौन पलट सकता है ? कोई नहीं। और उक्त प्रलोभन से प्रभावित मनोवृत्ति का आखिर यही परिणाम होता है कि जैसे भी हो, ईश्वर को प्रसन्न किया जाय और अपना मतलब साधा जाय!
भगवान महावीर ने प्रस्तुत सन्दर्भ में मानव को उदबोधन देते हुए कहा है... "मानव! विश्व में तु ही सर्वोपरि है। यह दीनता और हीनता तेरे स्वयं के अज्ञान का दुष्फल है। जो तू अच्छा-बुरा कुछ भी पाता है, वह तेरा अपना किया हुआ होता है, वह किसी का दिया हुआ नहीं होता। तू ईश्वर की सृष्टि नहीं है, बल्कि ईश्वर ही तेरी सृष्टि है। ईश्वर का अस्तित्व है; परन्तु वह मनुष्य से भिन्न कोई परोक्ष सत्ता नहीं है। ईश्वर शासक है और मनुष्य शासित, ऐसा कुछ नहीं है। मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वरत्व है। ईश्वर कोई एक व्यक्तिविशेष नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक भूमिका विशेष है, जिसे हर मानव प्राप्त कर सकता है। ईश्वरत्व की स्थिति पाने के लिए न किसी तथाकथित देश का बन्धन है, न किसी जाति, कुल और पन्थ विशेष का। जो भी मनुष्य आध्यात्मिक विकास की उच्च भूमिका तक पहुँच जाता है, रागद्वेष के विकारों से अपने को मुक्त कर लेता है, स्व में स्व की लीनता प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा हो जाता है। भगवान् का कहना था कि हर आत्मा शक्ति रूप से तो अब भी ईश्वर है, सदा ही ईश्वर है। आवश्यकता है उस शक्ति को अभिव्यक्ति देने की। हर बिन्दु में सिन्धु छिपा है। सिन्धु का क्षुद्र रूप बिन्दु है, बिन्दु का विराट रूप सिन्धु है। मानवीय चेतना जब क्षुद्र रहती है, राग-द्वेष के बन्धन में बद्ध रहती है, तब तक वह एक साधारण संसारी प्राणी है। परन्तु जब चेतना विकृति-शून्य होती है, आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च सीमा पर पहुँचती है, तो वह परम चेतना बन जाती है, परमात्मा हो जाती है। परमात्मा मूलतः और कुछ नहीं है, सदा-सदा के लिए चेतना का शुद्ध हो जाना ही परमात्मा होना है।
संसार भूमिका पर खड़ी बद्ध चेतना अन्दर में दुर्बलताओं का शिकार होती है, अतः अन्तर्मन के सागर में तरंगायित होने वाली विकृतियों के आदेशों का पालन करती है, निर्दिष्ट माँगों का अनुसरण करती है। तन और मन की कुछ सविधाओं को पाकर वह सन्तुष्ट हो जाती है। परन्तु चेतना के सूक्ष्म अन्तःस्तर पर जब परिवर्तन होता है, अधोमुखता से ऊर्ध्वमुखता आती है, तब जीवन के समग्र तोष-रोष अर्थात्
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