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________________ ईश्वरत्व ५९ का अनुसंधान कर लिया, उसे अधिगत कर लिया, दर्शन की भाषा में, वह आत्मा सच्चिदानन्द बन जाती है। सत् और चित् तो उसके पास व्यक्तस्वरूप में पहले भी थे, किन्तु आनन्द के व्यक्तरूप की कमी थी। उसकी पूर्ति होते ही, आनन्द की उपलब्धि होते ही वह सच्चिदानन्द बन गयी है। जीव से ईश्वर बन गया, आत्मा से परमात्मा बन गया, भक्त से भगवान् बन गया और उपासक से उपास्य बन गया। यही भारतीय दर्शन का मर्म है। इसी मर्म को प्राप्त करने के लिए साधक निरन्तर आध्यात्म साधना का दीप जलाता है। ईश्वर कौन है, कहाँ है ? ईश्वरत्व के सम्बन्ध में ऊपरि विचार-चर्चा के उपरान्त अब हमें निष्कर्ष रूप में यह विचार करना है कि ईश्वर क्या है ? उसकी वास्तविक स्थिति क्या है ? मानव जाति ईश्वर के विषय में काफी भ्रान्त रही है। सम्भव है, अन्य किसी विषय में उतनी भ्रान्त न रही हो, जितनी कि ईश्वर के विषय में रही है ! कुछ धर्मों ने ईश्वर को एक सर्वोपरि प्रभुसत्ता के रूप में माना है। वे कहते हैं "ईश्वर एक है, अनादिकाल से वह सर्वसत्ता सम्पन्न एक ही चला आ रहा है। दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। नहीं क्या? दूसरा कोई ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह ईश्वर अपनी इच्छा का राजा है। जो चाहता है, वही करता है। वह असंभव को संभव कर सकता है, और संभव को असंभव! जो हो सकता है, उसे न होने दे, जो नहीं हो सकता, उसे करके दिखा दे। जो किसी अन्य रूप में होने जैसा हो, उसे सर्वथा विपरीत किसी अन्य रूप में कर दे।' ऐसा है ईश्वर का तानाशाही व्यक्तित्व, जिसे एक भक्त ने 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः' कहा है। वह जगत् का निर्माता है, संहर्ता है। एक क्षण में वह विराट् विश्व को बना सकता है, और एक क्षण में उसे नष्ट भी कर सकता है। उसकी लीला का कुछ पार नहीं है। उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। और वह रहता कहाँ है ? किसी का ईश्वर बैकुण्ठ में रहता है, किसी का ब्रह्मलोक में तो किसी का सातवें आसमान पर रहता हैं, तो किसी का समग्र विश्व में व्याप्त है। ईश्वरीय सत्ता की उक्त स्थापना ने मनुष्य को पंगु बना दिया है। उसने पराश्रित रहने की दुर्बल मनोवृत्ति पैदा की है। देववाद के समान ही ईश्वरवाद भी मानव को भय एवं प्रलोभन के द्वार पर लाकर खड़ा कर देता है। वह ईश्वर से डरता है, फलतः उसके प्रकोप से बचने के लिए वह नाना प्रकार के विचित्र क्रियाकाण्ड करता है। स्तोत्र पढ़ता है, माला जपता है, यज्ञ करता है, मूक पशुओं की बलि देता है। वह समझता है कि इस प्रकार के कार्य करने से ईश्वर मुझ पर प्रसन्न रहेगा, मेरे सब अपराध क्षमा कर देगा, मुझे किसी प्रकार का दण्ड न देगा। इस तरह ईश्वरीय उपासना मनुष्य को पापाचार से नहीं बचाती, अपितु पापाचार के फल से बच निकलने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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