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५८ चिंतन की मनोभूमि
एवं सच्ची राह पर आ जाना है । जीवन की गति एवं प्रगति को रोकना नहीं है, बल्कि, उसे अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर मोड़ देना है।
जैन- दर्शन के अनुसार, प्रत्येक चेतन एवं प्रत्येक आत्मा अक्षय एवं अनन्तकूप के समान है, जिसमें शुद्ध अमृत रस का अभाव नहीं है। प्रत्येक आत्मा में अनन्तअनन्त गुण हैं। वह कभी गुणों से रिक्त एवं शून्य नहीं हो सकती। आत्मा उस धनकुबेर के पुत्र के समान है, जिसके पास कभी धन की कमी नहीं होती, भले ही वह अपने उस अक्षय भंडार का दुरुपयोग ही क्यों न कर रहा हो । शक्ति का अक्षय धन तो आपके पास है, परन्तु उसे दुरुपयोग से हटा कर सदुपयोग में लगाना है। यदि इतना कर सके, तो फिर समझ लीजिए, आपके जीवन का समस्त दुःख, सुख में बदल जाएगा, समस्त अशान्ति, शान्ति में बदल जाएगी और सारी विषमताएँ समता में बदल जाएँगी। जीवन का हा-हाकार जय-जयकार, में परिणत हो जायगा। फिर जीवन में किसी भी प्रकार के द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतिकूल भाव कभी नहीं रहेंगे ।
संसारी आत्मा के पास सत्ता भी है और चेतना भी है। यदि उसके पास कुछ कमी है, तो सिर्फ स्थायी सुख एवं स्थायी आनन्द की कमी है। आत्मा को परमात्मा बनने के लिए यदि किसी वस्तु की आवश्यकता है, तो वह है उसका अक्षय एवं अनन्त आनन्द | अक्षय आनन्द की उपलब्धि के लिए आत्मा में निरन्तर उत्कण्ठा रहती है। वह सदा आनन्द और सुख की खोज करती है। प्रश्न यह है कि संसार के प्रत्येक प्राणी को सुख की खोज क्यों रहती है ? उसका कारण यह है कि सुख और आनन्द आत्मा का निज रूप है, वह इसके बिना नहीं रह सकती। इसलिए वह इसे पाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहती है। चींटी से लेकर हाथी तक और गन्दी नाली के कीट से लेकर सुरलोक में रहने वाले इन्द्र तक सभी सुख चाहते हैं, आनंद चाहते हैं । विश्व की छोटी-से-छोटी चेतना भी सुख चाहती है; भले ही, उस सुख को वह अपनी भाषा में अभिव्यक्त न कर सके । हाँ, यह सम्भव है कि सबकी सुख की कल्पना एक जैसी न हो, किन्तु यह निश्चित है कि सबके जीवन का एकमात्र ध्येय सुख की प्राप्ति है। सुख कहाँ मिलेगा ? कैसे मिलेगा ? यह तथ्य भी सबकी समझ में एक जैसा नहीं है। किन्तु सचेतन जीवन में कभी भी सुख की अभिलाषा का अभाव नहीं हो सकता, यह ध्रुव सत्य है । सुख की अभिलाषा तो सभी को है, किन्तु उसे प्राप्त करने का प्रयत्न और वह भी उचित प्रयत्न कितने करते हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है । जो उचित एवं सही प्रयत्न करेगा, वह एक - न - एक - दिन अवश्य ही सुख पाएगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । सुख की अभिलाषा प्रत्येक में होने पर भी वह सुख कहाँ मिलेगा, इस तथ्य को बिरले ही समझ पाते हैं । निश्चय ही उक्त अनन्त एवं अक्षय सुख का केन्द्र हमारी स्वयं की आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त विश्व के किसी बाह्य पदार्थ में सुख की परिकल्पना करना, एक भयंकर भ्रम है । जिस आत्मा ने अपने अन्दर में- अपने स्वरूप में ही रहकर अक्षय आनन्द
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