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________________ ईश्वरत्व ५७ एवं अविद्या का आवरण है तभी तक यह विविध बन्धनों में बद्ध है। पर, जैसे ही यह आत्मा निर्मल हुई कि शुद्ध-बुद्ध होकर समस्त प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए विमुक्त हो जाती है, परमात्मा बन जाती है। आध्यात्मवादी दर्शन आत्मा की शुद्ध अवस्था की ओर अपने लक्ष्य को स्थिर करता है। जैन-दर्शन में कहा है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वरूप में वैसी नहीं है, जैसी कि वर्तमान में दृष्टिगोचर होती है। यह तो केवल व्यवहार नय है। शुद्ध निश्चय नय से तो प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वरूप और परमात्मा-स्वरूप है। निश्चय नय से संसारस्थ आत्मा में और सिद्ध आत्मा में अणुमात्र भी भेद नहीं है। जो कुछ भेद है, वह औपाधिक है, कर्म-प्रकृति के संयोग से है। अतः प्रत्येक आत्मा को यह विश्वास करना चाहिए कि भले ही आज मैं बद्ध-दशा में हूँ, किन्तु एक दिन मैं मुक्त-दशा को भी अवश्य ही प्राप्त कर सकता हूँ। क्योंकि आत्मा चैतन्य स्वरूप है और उस चैतन्य स्वरूप आत्मा में अनन्त-अनन्त शक्ति विद्यमान है। आवश्यकता शक्ति की उत्पत्ति की नहीं, अपितु शक्ति की अभिव्यक्ति की है। ' जब भी कोई रोती एवं बिलखती आत्मा सद्गुरु के समक्ष हताश और निराश होकर खड़ी हुई है, भारत के प्रत्येक सद्गुरु ने उसके आँसुओं को पोंछकर उसे स्वस्वरूप की शक्ति को जागृत करने की दिशा में अमोघ सान्त्वना एवं प्रेरणा दी है। साधना के मार्ग पर लड़खड़ाते पंगु मन को केवल बाह्य क्रियाकलापरूपी लाठी का सहारा ही नहीं दिया गया, बल्कि इधर-उधर की पराश्रित भावना की वैसाखी छुड़ाकर, उसमें आध्यात्म-मार्ग पर दौड़ लगाने की एक अद्भुत शक्ति भी जागृत कर दी। सद्गुरु ने उस दीन-हीन आत्मा की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करके उसे भिखारी से सम्राट बना दिया। उस दीन एवं हीन आत्मा को, जो अपने अन्दर अनन्त शक्ति के होते हुए भी विलाप करती थी, अध्यात्म-भाव की मधुर प्रेरणा देकर इतना अधिक शक्ति-सम्पन्न बना दिया कि वह स्वयं ही सन्मार्ग पर अग्रसर नहीं हुई, बल्कि, दूसरों को भी सन्मार्ग पर लाने के प्रयत्न में महान् सफलता प्राप्त की। भारतीय दर्शन कहता है कि संसार की कोई भी आत्मा, भले ही वह अपने जीवन के कितने ही नीचे स्तर पर क्यों न हो, भूल कर भी उससे घृणा और द्वेष नहीं करना चाहिए: क्योंकि न जाने कब उस आत्मा में परमात्म-भाव की जागृति हो जाए। प्रत्येक आत्मा आध्यात्म-गुणों का अक्षय एवं अनन्त अमृत कूप है, जिसका न कभी अन्त हुआ है और न कभी अन्त होगा। विवेक ज्योति प्राप्त हो जाने पर प्रत्येक आत्मा अपने उस परमात्मा स्वरूप अमृत रस का आस्वादन करने लगती है। आत्मा का यह शुद्ध स्वरूप अमृत कहीं बाहर नहीं, बल्कि स्वयं उसके अन्दर में ही है। वह शुद्ध स्वरूप कहीं दूर नहीं है, अपने समीप ही है। समीप भी क्या? जो है, वह स्वयं ही है। बात बस इतनी-सी कि जो गलत रास्ता पकड़ लिया गया है, उसे छोड़कर अच्छी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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