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५६ चिंतन की मनोभूमि
है । रागद्वेष के वातावरण से बाहर आकर एक बार जो श्वास लिया कि उसकी सुगन्ध स्वयंमेव सर्वशक्तिमान् की अनुभूति करा देगी। सोई हुई आत्मा के जागृत होने पर विकार रूपी शत्रुओं का कहीं अता-पता भी न लगेगा। जीवन में एक नयी चमक आ जाएगी। जीवन को सच्चे आनन्द की ओर एक नया मोड़ मिल जाएगा। जीवन में पूर्णता आने लगेगी। जीवन के साम्राज्य में सर्वशक्तियों का उदय हो जाएगा।
जैन- दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्म-ज्योति विद्यमान है । प्रत्येक चेतन में परम चेतन विराजमान है। चेतन और परमचेतन दो नहीं हैं, एक हैं। अशुद्ध से शुद्ध होने पर चेतन ही परम चेतन हो जाता है। कोई भी चेतन, परम चेतन की ज्योति से मूलतः शून्य या रिक्त नहीं है । वह दीन, हीन एवं भिखारी नहीं है । यह मत समझिए कि कर्म के आवरण के कारण जो आत्मा आज संसार में भटक रही है, वह कभी संसार के बन्धनों से मुक्त न हो सकेगी। इस विराट् विश्व का प्रत्येक चेतन अपने स्वयंसिद्ध अध्यात्म-राज्य के सिंहासन पर बैठने का अधिकारी है, उसे भिखारी समझना सर्वथा भूल है। भिखारी हर चीज को माँगता है और साधक प्रत्येक वस्तु को अपने अन्दर से ही प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। मैं आपसे कहता हूँ कि प्रत्येक साधक अधिकारी है, वह भिखारी नहीं है। अधिकारी का अर्थ है—अपनी सत्ता पर विश्वास करने वाला और भिखारी का अर्थ है-अपनी सत्ता पर विश्वास न करके दूसरे की दया और करुणा पर अपना जीवन व्यतीत करने वाला। जैन-दर्शन का तदरूप चिन्तन उस ज्योति, प्रकाश और परमात्म-तत्त्व की खोज कहीं बाहर में नहीं, अपने अन्दर में ही करता है। वह कहता है कि 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । 'तत्वमसि' का अर्थ भी यही है कि आत्मा केवल आत्मा ही नहीं है, बल्कि वह स्वयं परमात्मा है, परब्रह्म है, ईश्वर है । मात्र आवश्यकता है—अपने को जागृत करने की. और आवरण को दूर फेंक देने की।
भारत के कुछ दर्शन केवल प्रकृति की व्याख्या करते हैं, पुद्गल के स्वरूप का ही वे प्रतिपादन करते हैं। भौतिक-दर्शन पुद्गल और प्रकृति की सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या करता है, किन्तु पुद्गल और प्रकृति से परे आत्म-तत्त्व तक उसकी पहुँच नहीं है। भौतिकवादी दार्शनिक पुद्गल और प्रकृति के सम्बन्ध में बहुत कुछ कह सकता है और बहुत कुछ लिख भी सकता है, परन्तु वह स्वयं अपने सम्बन्ध में कुछ भी जान नहीं पाता, कुछ भी कह नहीं पाता और कुछ भी लिख नहीं पाता । वह अपने को भी प्रकृति का ही परिणाम मानता है । अपनी स्वतन्त्र सत्ता की ओर उसका लक्ष्य नहीं जाता। इसके विपरीत आध्यात्मवादी दर्शन प्रकृति के वात्याचक्र में न उलझकर आत्मा की बात कहता है। वह कहता है कि आत्मा स्वयं क्या है और वह क्या होना चाहती है ? आध्यात्मवादी दार्शनिक यह सोचता है और विश्वास करता है कि मेरी यह आत्मा यद्यपि मूल स्वरूप की दृष्टि से शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन एवं निर्विकार है, फिर भी जब तक इसके साथ कर्म का संयोग है, जब तक इस पर माया
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