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ईश्वरत्व
मानव-जीवन संगमरमर के समान है और मानव एक शिल्पकार है। कुशल शिल्पी के हाथों मानव जीवन सुन्दरतम रूप में परिणत हो जाता है। मानव यदि कुशल शिल्पकार नहीं बन पाया, तो जीवन संगमरमर का स्वयं कोई मूल्य किंवा उपयोग नहीं रह जाता। वह मात्र संगमरमर का एक टुकड़ा पत्थर, केवल पत्थर रह जाएगा, इससे अधिक कुछ नहीं । यदि मनुष्य एक शिल्पकार की भूमिका में आ जाए, तो अपने जीवन-संगमरमर को उसे क्या रूप देना है, उसमें कौन-सा सौन्दर्य लाना है, उसमें क्या देखना है, उसके लिए कुछ भी बताने की आवश्यकता अन्य किसी को नहीं । एक शिल्पकार ही तो संगमरमर को काट-छाँट कर उसे भगवान् का रूप देता है । बस, मनुष्य शिल्पकार बना नहीं कि उसके जीवन-संगमरमर से भगवान् बन गया । हे मानव! तू एक बार अपने को पहचान ले, कुशल शिल्पकार बना ले, बस, तुझे सर्व शक्तिमान् बनते देर नहीं लगेगी।
भारत के कुछ दार्शनिकों ने ईश्वर की एक अलग सत्ता मानकर और उसे सर्वशक्तिमान् की संज्ञा देकर मनुष्य का महत्त्व कम कर दिया है। इसके विपरीत जैन दार्शनिकों की यह सबसे बड़ी विशेषता रही है कि उन्होंने सर्वशक्तिमान् के रूप में ईश्वर की अलग सत्ता नहीं मानकर, मनुष्य मात्र को ही सर्वशक्तिमान् माना । कितना गहरा एवं स्वस्थ विचार दिया जैन दार्शनिकों ने। मनुष्य को मनुष्य में ही बन्द कर दिया, कहीं अन्यत्र भटकने नहीं दिया, तनिक भी हिलने-डुलने की आवश्यकता का अनुभव नहीं होने दिया और परम सुख एवं अनन्त ज्ञान की अनुभूतियाँ छिटकने लग पड़ीं । परमानन्द प्राप्त करने का कितना सत्य एवं सरल मार्ग है । कवि ने ठीक ही कहा है.....
"बीज, बीज ही नहीं, बीज में तरुवरं भी है।
मनुज, मनुज ही नहीं, मनुज में ईश्वर भी है।"
मनुष्य तू केवल मनुष्य ही नहीं, हाड़-माँस का चलता-फिरता ढाँचा ही नहीं । तू बहुत कुछ है, बहुत कुछ। बस, एक बार अपने को पहचान ले । अपना परिचय अपने से करा दे। तुझ में अनन्त प्रकाश की जो रश्मियाँ बन्द पड़ी हैं, उन्हें एक बार खोलने की आवश्यकता है। एक बार अपनी आत्मा पर लगी राग-द्वेष की गन्दगी को धोकर देख, बस, सुगन्ध ही सुगन्ध है, प्रकाश ही प्रकाश है। ठोकरें देने वाला अन्धकार स्वयं प्रकाश बनकर ठोकरों से बचाने वाला बन जाएगा।
आत्मा को विकारों से बचाने की आवश्यकता है, फिर तो बाजी अपने हाथ में
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