________________
५४ चिंतन की मनोभूमि पहुँच जाता है, वही यहाँ भगवान् बन जाता है। जैन-धर्म यह नहीं मानता कि मोक्षलोक से भटक कर ईश्वर यहाँ अवतार लेता है, और वह संसार का भगवान् बनता है। जैन-धर्म का भगवान् भटका हुआ ईश्वर नहीं; परन्तु पूर्ण विकास पाया हुआ मानव-आत्मा ही ईश्वर है, भगवान् है। उसी के चरणों में स्वर्ग के इन्द्र अपना मस्तक झकाते हैं, उसे अपना आराध्य देव स्वीकार करते हैं। तीन लोक का सम्पूर्ण ऐश्वर्य उसके चरणों में उपस्थित रहता है। उसका प्रताप वह प्रताप है, जिसके समक्ष कोटिकोटि सूर्यों का प्रताप और प्रकाश भी फीका पड़ जाता है। अरिहन्त : आदिकर :
अरिहन्त भगवान् आदिकर भी कहलाते हैं। आदिकर का मूल अर्थ है, आदि करने वाला। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि किसकी आदि करने वाला ? धर्म तो अनादि है, उसकी आदि कैसी ? उत्तर है कि धर्म अवश्य अनादि है। जब से यह संसार है, संसार का बन्धन है, तभी से धर्म है, और उसका फल मोक्ष भी है। जब संसार अनादि है, तो धर्म भी अनादि ही हुआ। परन्तु यहाँ जो धर्म की आदि करने वाला कहा गया है, उसका अभिप्राय यह है कि अरिहन्त भगवान् धर्म का निर्माण नहीं करते, प्रत्युत धर्म की व्यवस्था का, धर्म की मर्यादा का निर्माण करते हैं। अपने-अपने युग में धर्म में जो विकार आ जाते हैं, धर्म के नाम पर जो मिथ्या आचार फैल जाते हैं, उनकी शुद्धि करके नये सिरे से धर्म की मर्यादाओं का विधान करते हैं। अतः अपने युग में धर्म की आदि करने के कारण अरिहन्त भगवान् 'आदिकर' कहलाते हैं।
हमारे विद्वान जैनाचार्यों की एक परम्परा यह भी है कि अरिहन्त भगवान श्रुतधर्म की आदि करने वाले हैं, अर्थात् श्रुत धर्म का निर्माण करने वाले हैं। जैन-साहित्य में आचारांग आदि धर्म-सूत्रों को श्रुत धर्म कहा जाता है। भाव यह है कि तीर्थङ्कर भगवान् पुराने चले आये धर्मशास्त्रों के अनुसार अपनी साधना का मार्ग तैयार नहीं करते। उनका जीवन अनुभव का जीवन होता है। अपने आत्मानुभव के द्वारा ही वे अपना मार्ग तय करते हैं और फिर उसी को जनता के समक्ष रखते हैं। पुराने पोथीपत्रों का भार लादकर चलना, उन्हें अभीष्ट नहीं है। हर एक युग का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अपना अलग शास्त्र होना चाहिए, अलग विधि-विधान होना चाहिए। तभी जनता का वास्तविक हित हो सकता है, अन्यथा जो शास्त्र चालू युग की अपनी दुरूह गुत्थियों को नहीं सुलझा सकते, वर्तमान परिस्थितियों पर प्रकाश नहीं डाल सकते, वे शास्त्र मानवजाति के अपने वर्तमान युग के लिए अकिंचित्कर हैं, अन्यथा सिद्ध है। यही कारण है कि तीर्थंकर भगवान् पुराने शास्त्रों के अनुसार हूबहू न स्वयं चलते हैं, न जनता को चलाते हैं। स्वानुभव के बल पर नये विधि-विधान का निर्माण करके जनता का कल्याण करते हैं, अतः वे आदिकर कहलाते हैं।
Jain. Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org