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अरिहन्तत्व : सिद्धान्त और स्वरूप ५३) अरुहन्त का अर्थ है-कर्म-बीज को नष्टकर देने वाले, फिर कभी जन्म न लेने वाले। 'रुह' धातु का संस्कृत भाषा में अर्थ है-सन्तान अर्थात् परम्परा । बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज, फिर बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज--यह बीज और वृक्ष की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। यदि कोई बीज को जलाकर नष्ट कर दे, तो फिर वृक्ष उत्पन्न नहीं होगा, बीज-वृक्ष की प्रकार परम्परा समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार कर्म से जन्म, और जन्म से कर्म की परम्परा भी अनादिकाल से चली आ रही है। यदि कोई साधक रत्नत्रय की साधना की अग्नि से कर्म-बीज को पूर्णतया जला डाले, तो वह सदा के लिए परम्परा से मुक्त हो जाएगा, अरुहन्त शब्द की इसी व्याख्या को ध्यान में रखकर आचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थ-सूत्र के अपने स्वोपज्ञ भाष्य में कहते
"दग्धेबीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाऽङ्कुरः। कर्म-बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥"
-अन्तिम, उपसंहारकारिका प्रकरण अरिहन्त भगवान् का स्वरूप
भारतवर्ष के दार्शनिक एवं धार्मिक साहित्य में भगवान् शब्द, बड़ा ही उच्चकोटि का भावपूर्ण शब्द माना जाता है। इसके पीछे एक विशिष्ट भाव-राशि स्थित है। 'भगवान्' शब्द 'भग' शब्द से बना है। अतः भगवान् का शब्दार्थ है'भगवाली आत्मा।'
आचार्य हरिभद्र ने भगवान् शब्द पर विवेचन करते हुए 'भग' शब्द के छ: अर्थ बतलाए हैं ऐश्वर्य = प्रताप, वीर्य = शक्ति अथवा उत्साह, यश = कीर्ति, श्री = शोभा, धर्म = सदाचार और प्रयत्न = कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए किया जाने वाला अदम्य पुरुषार्थ। जैसा कि उन्होंने कहा है
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, वीर्यस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याऽथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना॥"
-दशवैकालिक-सूत्र टीका, ४/१ अत: यहाँ स्पष्ट है कि जिस महान् आत्मा में पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण वीर्य, पूर्ण यश, पूर्ण श्री, पूर्ण धर्म और पूर्ण प्रयत्न स्थित हो, वह भगवान् कहलाती है। तीर्थङ्कर महाप्रभु में उक्त छहों गुण पूर्णरूप से विद्यमान होते हैं, अत: वे भगवान कहे जाते हैं।
जैन-संस्कृति, मानव-संस्कृति है। यह मानव में ही भगवत्स्वरूप की झाँकी देखती है। अतः जो साधक, साधना करते हुए वीतराग-भाव के पूर्ण विकसित पद पर
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१. आचार्य जिनदास ने दशवैकालिक चूर्णि में 'वीर्य' के स्थान में 'रूप' शब्द का प्रयोग किया है।
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