SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वरत्व ६ राग-द्वेष समाप्त हो जाते हैं, आत्मानन्द की शाश्वत धारा प्रवाहित हो जाती है, और इस प्रकार चेतना अनन्त प्रज्ञा में परिवर्तित एवं विकसित होकर परमात्मा हो जाती है। चेतना का शुद्ध रूप ही प्रज्ञा है, जिसे दर्शन की भाषा में ज्ञानचेतना कहते हैं। बाहर के किसी प्रभाव को ग्रहण न करना ही अर्थात् राग या द्वेष के छद्म रूप से प्रभावित न होना ही चेतना का प्रज्ञा हो जाना है, ज्ञानचेतना हो जाना है। यही आध्यात्मिक पवित्रता है, वीतरागता है, जो आत्मचेतना को परमात्मचेतना में रूपान्तरित करती है, जन से जिन और नर से नारायण बना देती है। यह विकास प्रक्रिया क्रमिक है। जितना-जितना प्रज्ञा के द्वारा चेतना का जड़ के साथ चला आया रागात्मक संपर्क टूटता जाता है, जितना-जितना भेदविज्ञान के आधार पर जड़ और चेतन का विभाजन गहरा और गहरा होता जाता है, उतनी-उतनी चेतना में परमात्वस्वरूप की अनुभूति स्पष्ट होती जाती है। आध्यात्म भाव की इस विकास प्रक्रिया को भगवान् महावीर ने गुणस्थान की संज्ञा दी है। आत्मा से परमात्मा होने की विकास प्रक्रिया के सम्बन्ध में भगवान् ने स्पष्ट घोषणा की है कि परमात्मा विश्व-प्रकृति का द्रष्टा है, स्रष्टा नहीं। स्रष्टा स्वयं विश्वप्रकृति है। विश्वप्रकृति के दो मूल तत्त्व हैं...जड़ और चेतन। दोनों ही अपने अन्दर कर्तृत्व की वह शक्ति लिए हुए हैं, जो स्वभाव से विभाव और विभाव से स्वभाव की ओर गतिशील रहती है। पर के निमित्त से होने वाली कर्तृत्व शक्ति विभाव है, और पर के निमित्त से रहित स्वयंसिद्ध सहज कर्तृत्वशक्ति स्वभाव है। जब चेतनातत्त्व पूर्ण शुद्ध होकर परमात्वचेतना का रूप लेता है, तब वह पराश्रितता से मुक्त हो जाता है, पर के कर्तृत्व का विकल्प उसमें नहीं रहता, 'स्व' अपने ही 'स्व' रूप में पूर्णतया समाहित हो जाता है। यह चेतना की विभाव से स्वभाव में पूरी तरह वापस लौट आने की अन्तिम स्थिति है। और यह स्थिति ही वह परमात्व सत्ता है, जो मानव जीवन की सर्वोत्तम शुद्ध चेतना में प्रतिष्ठित है। इस प्रकार भगवान् महावीर ने संसार की अन्धेरी गलियों में भटकते मनुष्य को जीवनशुद्धि का दिव्य सन्देश देकर अनन्त ज्योतिर्मय ईश्वर के पद पर प्रतिष्ठित किया। भगवान महावीर ईश्वर को, जैसा कि कुछ लोग मान रहे थे, शक्ति और शासन का प्रतीक नहीं, अपितु शुद्धि का प्रतीक मानते थे। उनका कहना था कि मानव-आत्मा जब पूर्ण शुद्धि की भूमिका पर जा पहुँचती है, तो वह सिद्ध हो जाती है, आत्मा से परमात्मा हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy