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________________ अरिहन्तत्व : सिद्धान्त और स्वरूप -- जैन दर्शन के अनुसार वीतरागदेव अरिहन्त होते हैं। अरिहन्त हुए बिना वीतरागता हो ही नहीं सकती। दोनों में कार्य-कारण का अटूट सम्बन्ध है । अरिहन्तता कारण है, वीतरागता उसका कार्य हैं। जैन धर्म विजय का धर्म है, पराजय का नहीं । शत्रुओं को जड़ - मूल से नष्ट करने वाला धर्म है, उसकी दासता करने वाला नहीं । यही कारण है कि सम्पूर्ण जैन साहित्य अरिहन्त और जिन के मंगलाचरण से प्रारम्भ होता है, और अन्त में इससे ही समाप्त होता है। जैन धर्म का मूलमन्त्र नवकार है, उसमें भी सर्व-प्रथम 'नमो अरिहंताणं' है। जैन धर्म की साधना का मूल सम्यग्दर्शन है, उसके प्रतिज्ञा - सूत्र में भी सर्व प्रथम ' अरिहन्तो मह देवो' है । अतएव प्रस्तुत 'नमोत्थुणं' सूत्र का प्रारम्भ भी 'नमोत्थुणं अरिहंताणं' से ही हुआ है। जैनसंस्कृति और जैन विचार-धारा का मूल अरिहंत ही है। जैन-धर्म को समझने के लिए अरिहन्त शब्द का समझना अत्यावश्यक है। - अरिहन्त का अर्थ है—' शत्रुओं को हनन करने वाला।' आप प्रश्न कर सकते हैं कि यह भी कोई धार्मिक आदर्श है ? अपने शत्रुओं को नष्ट करने वाले हजारों क्षत्रिय हैं, हजारों राजा हैं, क्या वे वन्दनीय हैं ? गीता में श्रीकृष्ण के लिए भी 'अरिसूदन' शब्द आता है, उसका अर्थ भी शत्रुओं का नाश करने वाला ही है। श्रीकृष्ण ने कंस, शिशुपाल, जरासन्ध आदि शत्रुओं का नाश किया भी है। अतः क्या वे भी अरिहन्त हुए जैन संस्कृति के आदर्श देव हुए ? उत्तर में निवेदन है कि यहाँ अरिहन्त से अभिप्राय, बाह्य शत्रुओं को हनन करना नहीं है, प्रत्युत अन्तरंग काम-क्रोधादि शत्रुओं को हनन करना है। बाहर के शत्रुओं को हनन करने वाले हजारों वीर क्षत्रिय मिल सकते हैं, भयंकर सिंहों और बाघों को मृत्यु के घाट उतारने वाले भी मिलते हैं: परन्तु अपने अन्दर में स्थित कामादि शत्रुओं को हनन करने वाले सच्चे आध्यात्मक्षेत्र के क्षत्रिय बिरले ही मिलते हैं। एक साथ करोड़ शत्रुओं से जूझने वाले कोटि भट - वीर भी अपने मन की वासनाओं के आगे थर-थर काँपने लगते हैं, उनके इशारे पर नाचने लगते हैं। हजारों वीर धन के लिए प्राण देते हैं, तो हजारों सुन्दर स्त्रियों पर मरते हैं । रावण - जैसा विश्व-विजेता वीर भी अपने अन्दर की कामवासना से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सका। अतएव जैन-धर्म कहता है कि अपने-आप से लड़ो ! अन्दर की वासनाओं से लड़ो ! बाहर के शत्रु इन्हीं के कारण जन्म लेते हैं। विष-वृक्ष के पत्ते नोचने से काम नहीं चलेगा, जड़ उखाड़िए, जड़! जब अन्तरंग हृदय में कोई सांसारिक वासना ही न होगी, काम, क्रोध, लोभ आदि की छाया ही न रहेगी तब बिना कारण के बाह्य शत्रु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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