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________________ ५०. चिंतन की मनोभूमि "धर्ममुक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजा-सत्कारार्थम्" -सूत्र-कृताङ्ग टीका १/६/४ केवल टीका में ही नहीं, जैन-धर्म के मूल आगम-साहित्य में भी यही भाव बताया गया है "सव्वजगजीव-रक्खण-दयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं" -प्रश्नव्याकरण-सूत्र २/१ तीर्थंकर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी सत्रकार ने 'जिणाणं' आदि विशेषणों के बाद 'सव्वन्नणं सव्वदरिसीणं' के विशेषण बड़े ही गम्भीर अनुभव के आधार पर रखे हैं। जैन-धर्म में सर्वज्ञता के लिए शर्त है, राग और द्वेष का क्षय हो जाना। राग-द्वेष का सम्पूर्ण क्षय किए बिना, अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग भाव सम्पादन किए बिना सर्वज्ञता सम्भव नहीं। सर्वज्ञता प्राप्त किए बिना पूर्ण आप्त पुरुष नहीं हो सकता। पूर्ण आप्त पुरुष हुए बिना त्रिलोक-पूज्यता नहीं हो सकती, तीर्थङ्कर पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। उक्त 'जिणाणं' पद ध्वनित करता है कि जैन-धर्म में वही आत्मा सुदेव है, परमात्मा है, ईश्वर है, परमेश्वर है, परब्रह्म है, सच्चिदानन्द है, जिसने चतुर्गति-रूप संसार-वन में परिभ्रमण कराने वाले राग-द्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं को पूर्णरूप से नष्ट कर दिया है। जिसमें राग-द्वेष आदि विकारों का थोड़ा भी अंश हो, वह साधक भले ही हो सकता है, परन्तु यह तीर्थंकर अथवा देवाधिदेव परमात्मा नहीं हो सकता। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं "सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रैलोक्य-पूजितः।। यथास्थितार्थ-वादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः॥" _योगशास्त्र २/४ सर्वज्ञता का, एक बड़ा ही सरल एवं व्यावहारिक अर्थ है—'आत्मवत् सर्व भूतेषु' की उदात्त दृष्टि । तात्पर्य यह है कि जब एक व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास ऐसे उच्च एवं विस्तृत धरातल पर कर लेता है, जहाँ विश्व की समस्त अनुभूति को, सुख, दुख, हर्ष, विषाद, प्रमोद एवं पीड़ा की भावनाओं को अपनी भावना में अन्तर्भूत कर लेता है, विश्व की समस्त आत्माओं में अपनी आत्मा को मिला देता है, वस्तुतः ऐसी ही पीठिका पर, वह सर्वज्ञ हो जाता है। सर्वज्ञ का सीधा अर्थ यही है कि हम विश्व की सभी आत्माओं को समभाव से, समानरूप से देखें। इस स्थिति में व्यक्ति आत्मा की आवाज, विश्वात्मा की आवाज होती है, उसका चिन्तन विश्व-आत्मा का ' चिन्तन होता है, उसकी अनुभूति, विश्व-आत्मा की अनुभूति होती है। विश्व उसमें निहित होता है और वह विश्वमय हो जाता है। वही सर्वज्ञ होता है, तीर्थङ्कर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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