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तीर्थङ्कर ४९ तीर्थङ्कर की वाणी : जन कल्याण के लिए :
तीर्थकर भगवान के लिए जिन, जापक, तीर्ण, तारक, बुद्ध, बोधक, मुक्त और मोचक के विशेषण बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। तीर्थङ्करों का उच्च-जीवन वस्तुत: इन विशेषणों पर ही अवलम्बित है। राग-द्वेष को स्वयं जीतना और दूसरे साधकों से जितवाना, संसार-सागर से स्वयं तैरना और दूसरे प्राणियों को तैराना, केवलज्ञान पाकर स्वयं बुद्ध होना और दूसरों को बोध देना, कर्म-बन्धनों से स्वयं मुक्त होना और दूसरों को मुक्त कराना, कितना महान् एवं मंगलमय आदर्श है! जो लोग एकान्त निवृत्ति मार्ग के गीत गाते हैं, अपनी आत्मा को ही तारने मात्र का स्वप्न रखते हैं, उन्हें इस ओर लक्ष्य देना चाहिए!
मैं पूछता हूँ, तीर्थङ्कर भगवान् क्यों दूर-दूर भ्रमण कर अहिंसा और सत्य का सन्देश देते हैं ? वे तो केवलज्ञान और केवल-दर्शन को पाकर कृतकृत्य हो गए हैं। अब उनके लिए क्या करना शेष है ? संसार के दूसरे जीव मुक्त होते हैं या नहीं, इससे उनको क्या हानि-लाभ.? यदि लोग धर्मसाधना करेंगे, तो उनको लाभ है और नहीं करेंगे, तो उन्हीं को हानि है। उनके लाभ और हानि से भगवान् को क्या लाभ-हानि है ? जनता को प्रबोध देने से उनकी मुक्ति में क्या विशेषता हो जाएगी ? और यदि प्रबोध न दें तो कौन-सी विशेषता कम हो जाएगी?
इन सब प्रश्नों का उत्तर जैनागमों का मर्मी पाठक यही देता है कि जनता को प्रबोध देने और न देने से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत हानि-लाभ नहीं है। भगवान् किसी स्वार्थ को लक्ष्य में रखकर कुछ भी नहीं करते। न उनको पंथ चलाने का मोह है, न शिष्यों की टोली जमा करने का स्वार्थ है। न उन्हें पूजा-प्रतिष्ठा चाहिए और न मान-सम्मान! वे तो पूर्ण वीतराग पुरुष हैं। अतः उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति केवल करुणाभाव से होती है। जन-कल्याण की श्रेष्ठ भावना ही धर्म-प्रचार के मूल में निहित है, और कुछ नहीं। तीर्थङ्कर अनन्त-करुणा के सागर हैं। फलतः किसी भी जीव को मोह-माया में आकुल देखना उनके लिए करुणा की वस्तु है। यह करुणाभावना ही उनके महान् प्रवृत्तिशील जीवन की आधारशिला है। जैन-संस्कृति का गौरव प्रत्येक बात में केवल अपना हानि-लाभ देखने में ही नहीं है। प्रत्युत जनता का हानि-लाभ देखने में भी है। केवल ज्ञान पाने के बाद तीस वर्ष तक भगवान् महावीर निष्काम जन-सेवा करते रहे। तीस वर्ष के धर्म-प्रचार से एवं जन-कल्याण से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत लाभ न हुआ, और न उनको इसकी अपेक्षा ही थी। उनका अपना आध्यात्मिक जीवन बन चुका था और कुछ साधना शेष नहीं रही थी: फिर भी विश्व-करुणा की भावना से जीवन के अन्तिम क्षण तक जनता को सन्मार्ग का उपदेश देते रहे। आचार्य शीलाङ्क ने सूत्रकृताङ्ग सूत्र की अपनी टीका में इसी बात को ध्यान में रखकर कहा है
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