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________________ ४८ चिंतन की मनोभूमि आध्यात्मिक शान्ति का साम्राज्य कायम करते हैं। तीर्थङ्कर शरीर के नहीं, हृदय के सम्राट बनते हैं, फलतः वे संसार में पारस्परिक प्रेम एवं सहानुभूति का, त्याग एवं वैराग्य का विश्व-हितंकर शासन चलाते हैं। वास्तविक सुख-शान्ति, इन्हीं धर्म चक्रवर्तियों के शासन की छत्रच्छाया में प्राप्त हो सकती है, अन्यत्र नहीं। तीर्थङ्कर भगवान का शासन तो चक्रवर्तियों पर भी होता है। भोग-विलास के कारण जीवन की भूल-भुलैय्या में पड़ जाने वाले और अपने कर्तव्य से पराङ्मुख हो जाने वाले चक्रवर्तियों को तीर्थङ्कर भगवान् ही उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाते हैं, कर्तव्य का भान कराते हैं । अतः तीर्थङ्कर भगवान् चक्रवर्तियों के भी चक्रवर्ती हैं। व्यावृत्त छद्म : तीर्थङ्कर देव व्यावृत्त-छद्म कहलाते हैं। व्यावृत्त-छद्म का अर्थ है'छम से रहित।' छद्म के दो अर्थ हैं-आवरण और छल। ज्ञानावरणीय आदि चार घातिया कर्म आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि मूल शक्तियों को छादन किए रहते हैं, ढंके रहते हैं, वे छद्म कहलाते हैं 'छादयतीति छद्म ज्ञानावरणीयादि' __-प्रतिक्रमण-सूत्र पद-विवृत्ति, प्रणिपातदण्डक जो छद्म से, ज्ञानावरणीय आदि चार घातिया कर्मों से पूर्णतया अलग हो गये हैं, वे 'व्यावृत्त-छद्म ' कहलाते हैं। तीर्थङ्कर देव अज्ञान और मोह आदि से सर्वथा रहित होते हैं। छद्म का दूसरा अर्थ है 'छल और प्रमाद।' अतः छल और प्रमाद से रहित होने के कारण भी तीर्थङ्कर 'व्यावृत्तछद्म' कहे जाते हैं। तीर्थङ्कर भगवान् का जीवन पूर्णतया सरल और समरस रहता है। किसी भी प्रकार की गोपनीयता, उनके मन में नहीं होती। क्या अन्दर और क्या बाहर, सर्वत्र समभाव रहता है, स्पष्ट भाव रहता है। यही कारण है कि भगवान् महावीर आदि तीर्थङ्करों का जीवन पूर्ण आप्त पुरुषों का जीवन रहा है। उन्होंने कभी भी दहरी बातें नहीं की। परिचित और अपरिचित, साधारण जनता और असाधारण चक्रवर्ती आदि, अनसमझ बालक और समझदार वृद्ध-सबके समक्ष एक समान रहे। जो कुछ भी परम सत्य उन्होंने प्राप्त किया, निश्छल-भाव से जनता को अर्पण किया। यही आप्त जीवन है, जो शास्त्र में प्रामाणिकता लाता है। आप्त पुरुष का कहा हुआ प्रवचन ही प्रमाणाबाधित, तत्त्वोपदेशक, सर्व-जीव-हितकर, अकाट्य तथा मिथ्यामार्ग का निराकरण करने वाला होता है। आचार्य सिद्धसेन ने शास्त्र का उल्लेख करते हुए कहा "आप्तोपज्ञमनुल्लङ्थ्य मदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं, शास्त्र कापथ-घट्टनम्॥९॥" -न्यायावतार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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