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तीर्थङ्कर ४७ छा जाता है, तब तीर्थङ्कर भगवान् ही जनता को ज्ञान नेत्र अर्पण करते हैं, अज्ञान का जाल साफ करते हैं ।
पुरानी कहानी है कि एक देवता का मन्दिर था, बड़ा ही चमत्कार पूर्ण ! वह, आने वाले अन्धों को नेत्र ज्योति दिया करता था । अन्धे लाठी टेकते आते और इधर आँखें पाते ही द्वार पर लाठी फेंक कर घर चले जाते ! तीर्थङ्कर भगवान् ही वस्तुतः ऐसे चमत्कारी देव हैं। इनके द्वार पर जो भी काम और क्रोध आदि विकारों से दूषित अज्ञानी अन्धा आता है; वह ज्ञान - नेत्र पाकर प्रसन्न होता हुआ लौटता है । चण्डकौशिक आदि ऐसे ही जन्म-जन्मान्तर के अन्धे थे, परन्तु भगवान् के पास आते ही अज्ञान का अन्धकार दूर हो गया, सत्य का प्रकाश जगमगा गया । ज्ञान- नेत्र की ज्योति पाते ही सब भ्रान्तियाँ क्षण-भर में दूर हो गईं।
धर्मचक्रवर्ती :
तीर्थङ्कर भगवान् धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती हैं, चार दिशारूप चार गतियों का अन्त करने वालें हैं। जब देश में सब ओर अराजकता जाती है, तब छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त होकर देश की एकता नष्ट हो जाती है, तब चक्रवर्ती का चक्र ही पुनः राज्य की सुव्यवस्था करता है, यह सम्पूर्ण बिखरी हुई देश की शक्ति को एक शासन के नीचे लाता है। सार्वभौम राज्य के बिना प्रजा में शान्ति की व्यवस्था नहीं हो सकती । अतः चक्रवर्ती इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है । वह पूरब पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाओं में समुद्र - पर्यन्त तथा उत्तर में हिमवान पर्वत पर्यन्त अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित करता है, अतः चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाता है।
तीर्थङ्कर भगवान् भी नरक, तिर्यंच आदि चारों गतियों का अन्तकर सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा और सत्य का धर्मराज्य स्थापित करते हैं। दान, शील तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना वे स्वयं अन्तिम कोटि तक करते हैं, और जनता को भी इस धर्म का उपदेश देते हैं, अतः वे धर्म के चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाते हैं। भगवान् का धर्मचक्र ही वस्तुतः संसार में भौतिक एवं आध्यात्मिक सर्वप्रकारेण अखण्ड शान्ति कायम कर सकता है। अपने-अपने मत-जन्य दुराग्रह के कारण फैली हुई धार्मिक अराजकता का अन्त कर अखण्ड धर्म-राज्य की स्थापना तीर्थङ्कर ही करते हैं । वस्तुतः यदि विचार किया जाए, तो भौतिक जगत् के प्रतिनिधि चक्रवर्ती से यह संसार कभी स्थायी शान्ति पा ही नहीं सकता। चक्रवर्ती तो भोग-वासना का दास एक पामर संसारी प्राणी है। उसके चक्र के मूल में साम्राज्य- लिप्सा का विष छुपा होता है। जनता का परमार्थ नहीं, अपना स्वार्थ निहित होता है। यही कारण है कि जहाँ चक्रवर्ती का शासन मानव-प्रजा के निरपराध रक्त से सींचा जाता है, वहाँ हृदय पर नहीं, शरीर पर विजय पाने का प्रयत्न होता है । परन्तु हमारे तीर्थङ्कर धर्मचक्रवर्ती हैं। अतः वे पहले अपनी ही तप:साधना के बल से काम, क्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं को नष्ट करते हैं, पश्चात् जनता के लिए धर्म-तीर्थ की स्थापना कर अखण्ड
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