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४६ चिंतन की मनोभूमि सब उत्कृष्ट उपमाएँ छोड़ कर दीपक ही क्यों अपनाया गया ? प्रश्न ठीक है; परन्तु जरा गम्भीरता से सोचिए, नन्हे से दीपक की महत्ता, स्पष्टतः झलक उठेगी। बात यह है कि सूर्य और चन्द्र प्रकाश तो करते हैं, किन्तु किसी को अपने समान प्रकाशमान नहीं बना सकते। इधर लघु दीपक अपने संसर्ग में आए, अपने से संयुक्त हुए हजारों दीपकों को प्रदीप्त कर अपने समान ही प्रकाशमान दीपक बना देता है। वे भी उसी तरह जगमगाने लगते हैं और अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने लगते हैं। अतः स्पष्ट है कि दीपक प्रकाश देकर ही नहीं रह जाता, वह दूसरों को भी अपने समान ही बना लेता है। तीर्थङ्कर भगवान् भी इसी प्रकार केवल प्रकाश फैला कर ही विश्रान्ति नहीं लेते; प्रत्युत अपने निकट संसर्ग में आने वाले अन्य साधकों को भी साधना का पथ प्रदर्शित कर, अन्त में अपने समान ही बना लेते हैं। तीर्थङ्करों का ध्याता, सदा ध्याता ही नहीं रहता, वह ध्यान के द्वारा अन्ततोगत्वा, ध्येय-रूप में परिणत हो जाता है। उक्त सिद्धान्त की साक्षी के लिए गौतम और चन्दना आदि के इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण, हर कोई जिज्ञासु देख सकता है। अभयदयः अभयदान के दाता :
संसार में सब दानों में अभय-दान श्रेष्ठ है। हृदय की करुणा अभय-दान में ही पूर्णतया तरंगित होती है। "दाणाण सेठं अभयप्पयाणं।'
—सूत्र कृतांग, ६/२३ अस्तु, तीर्थङ्कर भगवान् तीन लोक में अलौकिक एवं अनुपम दयालु होते हैं। उनके हृदय में करुणा का सागर कुलाँचें मारता रहता है। विरोधी-से-विरोधी के प्रति भी उनके हृदय से करुणा की सतत धारा ही बहा करती है। गोशालक कितना उद्दण्ड प्राणी था ? परन्तु भगवान् ने तो उसे भी क्रुद्ध तपस्वी की तेजोलेश्या से जलते हुए बचाया। चण्डकौशिक पर कितनी अनन्त करुणा की है ? तीर्थङ्करदेव उस युग में जन्म लेते हैं, जब मानव-सभ्यता अपना पथ भूल जाती है, फलतः सब ओर अन्याय एवं अत्याचार का दम्भपूर्ण साम्राज्य छा जाता है। उस समय तीर्थङ्कर भगवान् क्या स्त्री क्या पुरुष, क्या राजा क्या रंक, क्या ब्राह्मण क्या शूद्र, सभी को सन्मार्ग का उपदेश करते हैं। संसार के मिथ्यात्व-वन में भटकते हुए मानव-समूह को सन्मार्ग पर लाकर उसे निराकुल बनाना, अभय-प्रदान करना, एकमात्र तीर्थङ्कर देवों का ही महान् कार्य है! चक्षुर्दय : ज्ञाननेत्र के दाता :
तीर्थङ्कर भगवान् आँखों के देने वाले हैं। कितना ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्य हो, यदि आँख नहीं तो कुछ भी नहीं। आँखों के अभाव में जीवन भार हो जाता है। अंधे को आँखें मिल जाएँ, फिर देखिए, कितना आनंदित होता है वह। तीर्थङ्कर भगवान् वस्तुतः अंधों को आँखें देने वाले हैं। जब जनता के ज्ञान-नेत्रों के समक्ष अज्ञान का जाल
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