________________
तीर्थङ्कर ४५
तीर्थङ्कर देव के चौंतीस अतिशयों का वर्णन है। वहाँ लिखा है कि " जहाँ तीर्थङ्कर भगवान् विराजमान होते हैं, वहाँ आस - पास सौ-सौ कोस तक महामारी आदि के उपद्रव नहीं होते । यदि पहले से हों भी, तो शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं ।" यह भगवान् का कितना महान् विश्वहितंकर रूप है ! भगवान् की महिमा केवल अन्तरंग के काम, क्रोध आदि उपद्रवों को शान्त करने में ही नहीं है, अपितु बाह्य उपद्रवों की शान्ति में भी है ।
प्रश्न किया जा सकता है कि एक सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार तो जीवों की रक्षा करना, उन्हें दुःख से बचाना पाप है । दुःखों को भोगना, अपने पाप कर्मों का ऋण चुकाना है। अतः भगवान् का यह जीवों को दुःखों से बचाने का अतिशय क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि भगवान् का जीवन मंगलमय है। वे क्या आध्यात्मिक और क्या भौतिक, सभी प्रकार से जनता के दुःखों को दूर कर शान्ति का साम्राज्य स्थापित करते हैं। यदि दूसरों को अपने निमित्त से सुख पहुँचाना पाप होता, तो भगवान् को यह पाप - वर्द्धक अतिशय मिलता ही क्यों ? यह अतिशय तो पुण्यानुबन्धी पुण्य के द्वारा प्राप्त होता है, फलतः जगत् का कल्याण करता है। इसमें पाप की कल्पना करना तो नासमझी है। कौन कहता है कि जीवों की रक्षा पाप है ? यदि पाप है, तो भगवान् को यह पाप-जनक अतिशय कैसे मिला ? यदि किसी को सुख पहुँचाना वस्तुत: पाप ही होता, तो भगवान् क्यों नहीं किसी पर्वत की गुहा में बैठे रहे ? क्यों दूर - सुदूर देशों में भ्रमण कर जगत् का कल्याण करते रहे ? अतएव यह भ्रान्त कल्पना है कि किसी को सुख - शान्ति देने से पाप होता है । भगवान् का यह मंगलमय अतिशय ही इसके विरोध में सबसे बड़ा और प्रबल प्रमाण है ।
लोकप्रदीप :
तीर्थङ्कर भगवान् लोक में प्रकाश करने वाले अनुपम दीपक हैं। जब संसार में अज्ञान का अन्धकार घनीभूत हो जाता है, जनता को अपने हित-अहित का कुछ भी भान नहीं रहता है, सत्य धर्म का मार्ग एक प्रकार से विलुप्त-सा हो जाता है, तीर्थङ्कर भगवान् अपने केवल ज्ञान का प्रकाश विश्व में फैलाते हैं और जनता के मिथ्यात्व - अन्धकार को नष्ट कर सन्मार्ग का पथ आलोकित करते हैं।
तब
-
घर का दीपक घर के कोने में प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुँधला होता है । परन्तु, भगवान् तो तीन लोक के दीपक हैं, तीन लोक में प्रकाश करने का महान् दायित्व अपने पर रखते हैं। घर का दीपक प्रकाश करने के लिए तेल और बत्ती की अपेक्षा रखता है, अपने-आप प्रकाश नहीं करता, जलाने पर प्रकाश करता है, वह भी सीमित प्रदेश में और सीमित काल तक ! परन्तु तीर्थङ्कर भगवान् तो बिना किसी अपेक्षा के अपने-आप तीन लोक और तीन काल को प्रकाशित करने वाले हैं। भगवान् कितने अनोखे दीपक हैं !
भगवान् को दीपक की उपमा क्यों दी गई है ? सूर्य और चन्द्र आदि की अन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org