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तीर्थङ्कर ३७ महामारी भी नहीं होती। उनके प्रभाव से रोग-ग्रस्त प्राणियों के रोग भी दूर हो जाते हैं। उनकी भाषा में वह चमत्कार होता है कि क्या आर्य और क्या अनार्य मनुष्य, . क्या पशु-पक्षी, सभी उनकी दिव्य वाणी का भावार्थ समझ लेते हैं। इस प्रकार अनेक लोकोपकारी सिद्धियों के स्वामी तीर्थकर होते हैं, जबकि दूसरी मुक्त होने वाली आत्माएँ ऐसी नहीं होती। अर्थात् न तो वे तीर्थङ्कर जैसी महान् धर्म-प्रचारक ही होती हैं, और न इतनी अलौकिक योग-सिद्धियों की स्वामी ही। साधारण मुक्त जीव अपना अन्तिम विकास-लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जनता पर अपना चिरस्थायी एवं अक्षुण्ण आध्यात्मिक प्रभुत्व नहीं जमा पाते। यही एक विशेषता है, जो तीर्थङ्कर और मुक्त आत्माओं में भेद करती है।
प्रस्तुत विषय के साथ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उपरिवर्णित यह भेद मात्र जीवन्मुक्त-दशा में अर्थात् देहधारी अवस्था में ही है। मोक्ष प्राप्ति के बाद कोई भी भेदभाव नहीं रहता। वहाँ तीर्थङ्कर और अन्य मुक्त आत्मा, सभी एक ही स्वरूप में रहते हैं। क्योंकि जब तक जीवात्मा जीवन्मुक्त दशा में रहती है तब तक तो प्रारब्ध-कर्म का भोग बाकी ही रहता है, अत: उसके कारण जीवन में भेद रहता है। परन्तु देह-मुक्त दशा होने पर मोक्ष में तो कोई भी कर्म अवशिष्ट नहीं रहता, फलतः कर्म-जन्य भेद-भाव भी नहीं रहता।
आध्यात्म के आख्याताः चौबीस तीर्थङ्कर वर्तमान काल-प्रवाह में चौबीस तीर्थकर हए हैं। प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में चौबीसों ही तीर्थङ्करों का विस्तृत जीवन-चरित्र मिलता है। परन्तु यहाँ विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही चौबीस तीर्थङ्करों का परिचय प्रस्तुत है। १. ऋषभदेव :
भगवान् ऋषभदेव सर्वप्रथम तीर्थङ्कर थे। उनका जन्म युगलियों के युग में हुआ था, जब मनुष्य वृक्षों के नीचे रहते थे और वन-फल तथा कन्दमूल खाकर जीवनयापन करते थे। उनके पिता का नाम नाभिराजा और माता का नाम मरुदेवा था। उन्होंने युवावस्था में आर्य-सभ्यता की नींव डाली। पुरुषों को बहत्तर और स्त्रियों को चौंसठ कलाएँ सिखाईं। वे विवाहित हुए। बाद में राज्य त्यागकर दीक्षा ग्रहण की और . कैवल्य प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव का जन्म, चैत्र कृष्णा अष्टमी को और निर्वाण- मोक्ष माघ कृष्णा त्रयोदशी को हुआ। उनकी निर्वाण-भूमि अष्टापद (कैलाश) पर्वत है। ऋग्वेद, विष्णुपुराण, अग्निपुराण, भागवत आदि वैदिक साहित्य में भी उनका गुण-कीर्तन किया गया है। २. अजितनाथ :
भगवान् अजितनाथ दूसरे तीर्थङ्कर थे। उनका जन्म अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय सम्राट् जितशत्रु राजा के यहाँ हुआ। माता का नाम विजयादेवी
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