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३६. चिंतन की मनोभूमि
बीज एक बार भुन गया, तो फिर कभी भी उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता । जन्म-मरण के अंकुर का बीज कर्म है। जब उसे तपश्चरण आदि धर्म - क्रियाओं से जला दिया, तो फिर जन्म-मरण का अंकुर कैसे फूटेगा ? आचार्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ भाष्य में, इस सम्बन्ध में क्या ही अच्छा कहा है
"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्म- बीजे तथा दग्धे
न रोहति भवांकुरः ॥
बहुत दूर चला आया हूँ; परन्तु विषय को स्पष्ट करने के लिए इतना विस्तार के साथ लिखना आवश्यक भी था। अब आप अच्छी तरह समझ गए होंगे कि जैन तीर्थङ्कर मुक्त हो जाते हैं, फलतः वे संसार में दुबारा नहीं आते। अस्तु, प्रत्येक कालचक्र में जो २४ तीर्थङ्कर होते हैं, वे सब पृथक्-पृथक् आत्मा होते हैं; एक नहीं । तीर्थङ्कर एवं अन्य मुक्त आत्माओं में अन्तरः
अब एक और गम्भीर प्रश्न है, जो प्रायः हमारे सामने आया करता है। कुछ लोग कहते हैं कि – जैन अपने २४ तीर्थङ्करों का ही मुक्त होना मानते हैं, और कोई इनके यहाँ मुक्त नहीं होते।' यह बिल्कुल ही भ्रान्त धारणा है। इसमें सत्य का कुछ भी अंश नहीं है ।
तीर्थङ्करों के अतिरिक्त अन्य आत्माएँ भी मुक्त होती हैं। जैन धर्म किसी एक व्यक्ति, जाति या समाज के अधिकार में ही मुक्ति का ठेका नहीं रखता। उसकी उदार दृष्टि में तो हर कोई मनुष्य, चाहे वह किसी भी देश, जाति, समाज या धर्म का क्यों न हो, जो अपने आप को बुराइयों से बचाता है; आत्मा को अहिंसा, क्षमा, सत्य, शील आदि सद्गुणों से पवित्र बनाता है, वह अनन्त ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करके मुक्त हो सकता है।
तीर्थङ्करों की तथा और अन्य मुक्त होने वाले महान् आत्माओं की आंतरिक शक्तियों में कोई भेद नहीं है । केवल - ज्ञान, केवल दर्शन आदि आत्मिक शक्तियाँ सभी मुक्त होने वालों में समान होती हैं । जो कुछ भेद है, वह धर्म - प्रचार की मौलिक दृष्टि का और अन्य योग-सम्बन्धी अद्भुत शक्तियों का है। तीर्थङ्कर महान् धर्म-प्रचारक होते हैं, वे अपने अद्वितीय तेजोबल से अज्ञान एवं अन्धविश्वासों का अन्धकार छिन्न-भिन्न कर देते है, और एक प्रकार से जीर्ण-शीर्ण, गले-सड़े मानव संसार की काया पलट कर डालते हैं। उनकी योग-सम्बन्धी शक्तियाँ अर्थात् सिद्धियाँ भी बड़ी ही अद्भुत होती हैं। उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं निर्मल रहता है, मुख के श्वास- उच्छवास सुगन्धित होते हैं । वैरानुबद्धविरोधी प्राणी भी उपदेश श्रवण कर शान्त हो जाते हैं। उनकी उपस्थिति में दुर्भिक्ष एवं अतिवृष्टि आदि उपद्रव नहीं होते,
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