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तीर्थङ्कर ३५
वासनाओं से मुँह मोड़ कर सत्य पथ के पथिक बन गए । आत्म-संयम की साधना में पहले से अनेक जन्मों से ही आगे बढ़ते गए और अन्त में एक दिन वह आया कि आत्म-स्वरूप की पूर्ण उपलब्धि उन्हें हो गई । ज्ञान की ज्योति जगमगाई और वे तीर्थङ्कर के रूप में प्रकट हो गए। उस जन्म में भी यह नहीं कि किसी राजा-महाराजा के यहां जन्म लिया और वयस्क होने पर भोग-विलास करते हुए ही तीर्थङ्कर हो गए। उन्हें भी राज्य - वैभव छोड़ना होता है, पूर्ण अहिंसा, पूर्ण सत्य, पूर्ण अस्तेय, पूर्ण ब्रह्मचर्य और पूर्ण अपरिग्रह की साधना में निरन्तर जुटा रहना होता है, पूर्ण विरक्त मुनि बनकर एकान्त - निर्जन स्थानों में आत्म-मनन करना होता है । अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों को पूर्ण शान्ति के साथ सहन कर प्राणापहरी शत्रु पर भी अन्तर्हृदय से दयामृत का शीतल झरना बहाना होता है, तब कहीं पाप - मल से मुक्ति होने पर केवल - ज्ञान और केवल दर्शन की प्राप्ति के द्वारा तीर्थङ्कर पद प्राप्त होता है । तीर्थङ्कर का पुनरागमन नहीं
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बहुत से स्थानों में जैनेतर बन्धुओं द्वारा यह शंका सामने आती है कि " जैनों में २४ ईश्वर या देव हैं, जो प्रत्येक काल - चक्र में बारी-बारी से जन्म लेते हैं और . धर्मोपदेश देकर पुनः अन्तर्ध्यान हो जाते हैं।" इस शंका का समाधान कुछ तो पहले ही कर दिया गया है। फिर भी स्पष्ट शब्दों में यह बात बतला देना चाहता हूँ कि - जैन-धर्म में ऐसा अवतारवाद नहीं माना गया। प्रथम तो अवतार शब्द ही जैनपरिभाषा का नहीं है । यह एक वैष्णव परम्परा का शब्द है, जो उसकी मान्यता के अनुसार विष्णु के बार-बार जन्म लेने के रूप में राम, कृष्ण आदि सत्पुरुषों के लिए आया है । आगे चलकर यह मात्र महापुरुष का द्योतक रह गया और इसी कारण आजकल के जैन-बन्धु भी किसी के पूछने पर झटपट अपने यहाँ २४ अवतार बता देते हैं, और तीर्थङ्करों को अवतार कह देते हैं। परन्तु इसके पीछे किसी एक व्यक्ति के द्वारा बार-बार जन्म लेने की भ्रान्ति भी चली आई है; जिसको लेकर अबोध जनता में यह विश्वास फल गया है कि २४ तीर्थङ्करों की मूल संख्या एक शक्तिविशेष के रूप में निश्चित है और वही महाशक्ति प्रत्येक काल-चक्र में बार-बार जन्म लेती है, संसार का उद्धार करती है और फिर अपने स्थान पर जाकर विराजमान हो जाती है ।
जैन-धर्म में मोक्ष प्राप्त करने के बाद संसार में पुनरागमन नहीं माना जाता । विश्व का प्रत्येक नियम कार्य-कारण के रूप में सम्बद्ध है। बिना कारण के कभी कार्य नहीं हो सकता। बीज होगा, तभी अंकुर हो सकता है; धागा होगा तभी वस्त्र बन सकता है। आवागमन का, जन्म-मरण पाने का कारण कर्म है, और वह मोक्ष अवस्था में नहीं रहता । अतः कोई भी विचारशील सज्जन समझ सकता है कि जो आत्मा कर्म-मल से मुक्त होकर मोक्ष पा चुकी, वह फिर संसार में कैसे आ सकती है? बीज तभी उत्पन्न हो सकता है, जब तक कि वह भुना नहीं है, निर्जीव नहीं हुआ है। जब
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