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________________ जैन-दर्शन में सप्त भंगीवाद | ५३३) ४. जिस प्रकार पृथक्-पृथक् न होने वाले कथंचित् अविप्वग्भावरूप तादात्म्य सम्बन्ध से अस्तित्व धर्म वस्तु में रहता है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी रहते हैं। अत: सम्बन्ध की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं। ५. अस्तित्व धर्म के द्वारा जो स्वानुरक्तत्व करण रूप उपकार वस्तु का होता है, वही उपकार अन्य धर्मों के द्वारा भी होता है। अतः उपकार की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है। . ६. जो क्षेत्र द्रव्य में अस्तित्व का है, वही क्षेत्र अन्य धर्मों का भी है। अत: अस्तित्व आदि धर्मों में अभेद है। इसी को गुणि-देश' कहते हैं। ७. जो एक वस्तु-स्वरूप से वस्तु में अस्तित्व धर्म का संसर्ग है, वही अन्य धर्मों का भी है। अतः संसर्ग की अपेक्षा से भी सभी धर्मों में अभेद है। ८. जिस प्रकार 'अस्ति' शब्द अस्तित्व धर्म-युक्त वस्तु का वाचक है, उसी प्रकार 'अस्ति' शब्द अन्य अनन्त धर्मात्मक वस्तु का भी वाचक है।' 'सर्वे सर्वार्थवाचकाः'। अतः शब्द की अपेक्षा से भी अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न हैं। कालादि के द्वारा यह अभेद व्यवस्था पर्याय स्वरूप अर्थ को गौण और गुणपिण्डरूप द्रव्य पदार्थ को प्रधान करने पर सिद्ध हो जाती है। प्रमाण का मूल प्राण_अभेद है। अभेद के बिना प्रमाण की कुछ भी स्वरूप-स्थिति नहीं है। नय-सप्तभंगी: नय वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्यरूप में ग्रहण करता है, वस्तुगत शेष धर्मों के प्रति वह तटस्थ रहता है। न वह उन्हें ग्रहण करता है और न उनका निषेध ही करता है। न हाँ और न ना, एक मात्र उदासीनता। इसको 'सुनय' कहते हैं। इसके विपरीत, जो नय अपने विषय का प्रतिपादन करता हुआ दूसरे नयों का खण्डन करता है, उसे 'दुर्नय' कहा जाता है। नय सप्तभंगी सुनय में होती है, दुर्नय में नहीं। वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का काल आदि भेदावच्छेदकों द्वारा भेद की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से प्रतिपादन करने वाला वाक्य विकलादेश कहलाता है। इसी को 'नय-सप्तभंगी' कहते हैं। नय सप्त भंगी में वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन भेद-मुखेन किया जाता है। नय-सम्बन्धित भेदावच्छेदक कालादिः नय सप्त भंगी में गुणपिण्डरूप द्रव्य पदार्थ को गौण और पर्याय स्वरूप अर्थ को प्रधान माना जाता है। अत: नय सप्त भंगी भेद-प्रधान है। उक्त भेद भी कालादि के द्वारा ही प्रमाणित होता है। १. अर्थ पद से लम्बी-चौड़ी अखण्ड वस्तु पूर्णरूप से ग्रहण की जाती है और गुणि-देश से अखण्ड वस्तु के बुद्धि-परिकल्पित देशांश ग्रहण किए जाते हैं। २. पूर्वोक्त सम्बन्ध और प्रस्तुत संसर्ग में यह अन्तर है कि तादात्म्य सम्बन्ध धर्मों को परस्पर योजना करने वाला है और संसर्ग एक वस्तु में अशेष धर्मों को ठहराने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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