SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 553
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३२ चिंतन की मनोभूमि बोधक अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। परन्तु न यह सम्भव है, और न व्यवहार्य ही। अनन्त धर्मों के लिए पृथक्-पृथक् अनन्त शब्दों के प्रयोग में अनन्त काल बीत सकता है, और तब तक एक पदार्थ का भी समग्र बोध न हो सकेगा। अस्तु, कुछ भी हो, हमें किसी एक शब्द से ही सम्पूर्ण अर्थ के बोध का मार्ग अपनाना पड़ता है। वह एक शब्द ध्वनि-मुखेन भले ही बाहर में एक धर्म का ही कथन करता-सा लगता है, परन्तु अभेद प्राधान्य वृत्ति अथवा अभेदोपचार से वह अन्य धर्मों का भी प्रतिपादन कर देता है। उक्त अभेद प्राधान्य वृत्ति या अभेदोपचार से एक शब्द के द्वारा एक धर्म का कथन होते हुए भी अखण्ड रूप से अन्य समस्त धर्मों का भी युगपत् कथन हो जाता है। अतः इसको 'प्रमाण-सप्त' भंगी कहते हैं। प्रश्न है, कि यह अभेद वृत्ति अथवा अभेदोपचार क्या चीज है ? जबकि वस्तु के अनन्त धर्म परस्पर भिन्न हैं, उन सब की स्वरूप सत्ता पृथक् है, तब उनमें अभेद कैसे माना जा सकता है ? सिद्धान्त प्रतिपादन के लिए केवल कथन मात्र अपेक्षित नहीं होता, उसके लिए कोई ठोस आधार चाहिए। समाधान है कि वस्तु-तत्त्व के प्रतिपादन की दो शैलियाँ हैं—अभेद और भेद। अभेद-शैली भिन्नता में भी अभिन्नता का पथ पकडती है और भेद-शैली अभिन्नता में भिन्नता का पथ प्रशस्त करती है। अस्तु, अभेद प्राधान्य वृत्ति या अभेदोपचार विवक्षित वस्तु के अनन्त धर्मों को काल, आत्म, रूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द की अपेक्षा से एक साथ अखण्ड एक वस्तु के रूप में उपस्थित करता है। इस प्रकार एक और अखण्ड वस्तु के रूप में अनन्त धर्मों को एक साथ प्रतिपादित करने वाले सकलादेश से वस्तु के समस्त धर्मों का एक साथ समूहात्मक परिज्ञान हो जाता है। अभेदावच्छेक कालादि का निरूपण : .. जीवं आदि पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप हैं, उक्त एक अस्तित्व-कथन में अभेदावच्छेदक काल आदि की घटन पद्धति इस प्रकार है १. वस्तु में जो अस्तित्व धर्म का समय है, काल है वही शेष अनन्त धर्मों का भी है, क्योंकि उसी समय वस्तु में अन्य भी अनन्त धर्म उपलब्ध होते हैं। अत: एक अस्तित्व के साथ काल की अपेक्षा अस्तित्व आदि सब धर्म एक हैं। २. जिस प्रकार वस्तु का अस्तित्व स्वभाव है, उसी प्रकार अन्य धर्म भी वस्तु के आत्मीय-रूप हैं, स्वभाव हैं। अतः आत्म-रूप की अपेक्षा से अस्तित्व आदि सब धर्म अभिन्न हैं। ३. जिस प्रकार वस्तु अस्तित्व का अर्थ है, आधार है, वैसे ही अन्य धर्मों का भी वह आधार है। अतः अर्थ अर्थात् आधार की अपेक्षा अस्तित्व आदि धर्म अभिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy