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जैन-दर्शन में सप्त भंगीवाद | ५३१) अन्यापोह "नास्ति" होकर भी अवक्तव्य रहता है। वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष दोनों स्वतन्त्र हैं। सामान्य-विशेष अस्ति-नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है। क्योंकि वे दोनों किसी एक शब्द के वाच्य नहीं हो सकते हैं और न सर्वथा भिन्न सामान्य-विशेष में कोई अर्थक्रिया ही हो सकती है। इस दृष्टि से जैन सम्मत मूल भंगों की स्थिति अन्य दर्शनों में भी किसी न किसी रूप में स्वीकृत है।२ सकलादेश और विकलादेश :
यह बताया जा चुका है कि प्रमाण वाक्य को सकलादेश और नय-वाक्य को विकलादेश कहते हैं। फिर भी उक्त दोनों भेदों को और अधिक स्पष्टता से समझने की आवश्यकता है। पाँच ज्ञानों में श्रुत ज्ञान भी एक भेद है। उस श्रुतज्ञान के दो३ उपयोग हैं—स्याद्वाद और नय। स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश। ये सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं, तब प्रमाण और जब विकलादेशी होते हैं, तब नय कहे जाते हैं। वस्तु के समस्त धर्मों को ग्रहण करने वाला सकलादेश और किसी एक धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला तथा शेष धर्मों के प्रति उदासीन अर्थात् तटस्थ रहने वाला विकलादेश कहा जाता है। आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में स्याद्वाद सम्पूर्णार्थविनिश्चायी है। अतः वह अनेकान्तात्मक पूर्ण अर्थ को ग्रहण करता है। जैसे "जीवः"कहने से जीव के ज्ञान आदि असाधारण धर्म, सत्त्व आदि साधारण धर्म और अमूर्तत्व आदि साधारणासाधारण आदि सभी गुणों का ग्रहण होता है। अतः यह प्रमाण-वाक्य है-स्याद्वाद वचन है। नय-वाक्य वस्तु के किसी एक धर्म का मुख्य रूप से कथन करता है। जैसे "जीवः" कहने से जीव के अनन्त गुणों में से केवल एक ज्ञान गुण का ही बोध होता है, शेष धर्म गौण रूप से उदासीनता के कक्ष में पड़े रहते हैं। सकलादेशी वाक्य के समान विकलादेशी वाक्य में भी "स्यात्" पद का प्रयोग अनेक आचार्यों ने किया है क्योंकि वह शेष धर्मों के अस्तित्व की गौण रूप से मूक सूचना करता है। इस आधार से सप्त भंगी के दो भेद किए जाते हैं—प्रमाण-सप्त भंगी
और नय-सप्त भंगी। प्रमाण-सप्त भंगी:
आगम और युक्ति से यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि वस्तु में अनन्त धर्म हैं। अतः किसी भी एक वस्तु का पूर्णरूप से कथन करने के लिए तत् तद् अनन्त धर्म
१. विशेष व्यावृत्तिहेतुक होने से नास्ति है २. पं. महेन्द्रकुमार संपादित-जैन दर्शन, पृ. ५४३ ३. उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ, स्याद्वाद नय-संज्ञितौ। स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा॥
-लघीयस्त्रय, श्लोक ६२ ४. अनेक-धर्मात्मक-वस्तुविषयक-बोधजनकत्वं सकलादेशत्वम्।
एकधर्मात्मक-वस्तु-विषयक-बोधजनकत्वं विकलादेशत्वम्॥ --सप्तभंगी तरंगिणी, पृ. १६ ५. नयनामेकनिष्ठानां, प्रवृत्ते श्रुतवमनि; सम्पूर्णार्थविनिश्चायि, स्याद्वाद श्रुतमुच्यते।
-न्यायावतार सूत्र, श्लोक, ३०
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