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५३० चिंतन की मनोभूमि श्रोता यदि शब्द-शक्ति और वस्तुस्वरूप की विवेचना में कुशल हैं, तो "स्यात्" शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती। बिना उसके प्रयोग के भी अनेकान्त का प्रकाशन हो जाता है। "अहम् अस्मि" मैं हूँ। यह एक वाक्य प्रयोग है। इसमें दो पद हैं—एक "अहम्" और दूसरा "अस्म्"ि । दोनों में से एक का प्रयोग होने पर दूसरे का अर्थ स्वतः ही गम्यमान हो जाता है, फिर भी स्पष्टता के लिए दोनों पदों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार 'पार्थो धनुर्धरः' इत्यादि वाक्यों में 'एव' कार का प्रयोग न होने पर भी तन्निमित्तक 'अर्जुन' ही धनुर्धर है—यहाँ अर्थबोध होता है, और कुछ नहीं२ प्रकृत में भी यही सिद्धान्त लागू पड़ता है। स्यात्-शून्य केवल "अस्ति घट" कहने पर भी यही अर्थ निकलता है, कि "कथंचित घट है, किसी अपेक्षा से घट है।" फिर भी भूल-चूक को साफ करने के लिए किंवा वक्ता के भावों को समझने में भ्रान्ति न हो जाए, इसलिए "स्यात्" शब्द का प्रयोग अभीष्ट है। क्योंकि संसार में विद्वानों की अपेक्षा साधारणजनों की संख्या ही अधिक है। अतः सप्त-भंगी जैसे गम्भीर तत्त्व को समझने का बहुमत-सम्मत राज मार्ग यही है, कि सर्वत्र "स्यात्''३ शब्द का प्रयोग किया जाए। अन्य दर्शनों में भंग-योजना का रहस्य :
भंगों के सम्बन्ध में स्पष्टता की जा चुकी है, फिर भी अधिक स्पष्टीकरण के लिए इतना समझना आवश्यक है कि सप्त भंगी में मूल भंग तीन ही हैं.-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य। शेष चार भंग संयोग जन्य हैं। तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी है। अद्वैत वेदान्त, बौद्ध और वैशेषिक दर्शन की दृष्टि से मूल तीन भंगों की योजना इस प्रकार की जाती है।
अद्वैत वेदान्त में एक मात्र तत्त्व ब्रह्म ही है। किन्तु वह 'अस्ति' होकर भी अवक्तव्य है। उसकी सत्ता होने पर भी वाणी से उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। अत: वेदान्त में ब्रह्म 'अस्ति' होकर भी 'अवक्तब्य' है। बौद्ध-दर्शन में अन्यापोह 'नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है। क्योंकि वाणी के द्वारा अन्य का सर्वथा. अपोह करने पर किसी भी विधि रूप वस्तु का बोध नहीं हो सकता। अत: बौद्ध का
१. अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते; विधौ निषेधेऽप्यन्यत्र, कुशलश्चेत्प्रयोजकः॥ ६३॥
-लघीयस्त्रय, प्रवचन प्रवेश २. सोऽप्रयुक्तोऽपि तज्ज्ञैः सर्वत्रार्थात्प्रतीयते;
तथैवकारो योगादिव्यवच्छेद प्रयोजनः॥ __-तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १,६,५६ स्यादित्यव्ययम् अनेकान्त द्योतकम्-स्याद्वाद मंजरी का० ५ आचार्य हेमचन्द्र स्यात् को अनेकान्त बोधक ही मानते हैं; अतः उन्हें स्यात् प्रमाण में अभीष्ट है, नय में नहीं-सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थ 'अयोग० का० २८। जबकि भट्टाकलंक लघीयस्त्रय ६२ में स्यात् को सम्यग् अनेकांत और सम्यग् एकांत उभय का वाचक मानते हैं, अतः उन्हें प्रमाण और नयदोनों में ही स्यात् अभीष्ट है।
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